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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय)
३१५
अथाहारहापनसमयमाह
पिण्डो जात्याऽपि नाम्नाऽपि समो युक्त्याऽपि योजितः ।
पिण्डोऽस्ति स्वार्थनाशार्थो यदा तं हापयेत्तदा ॥१४॥ जात्या-पुद्गलत्वलक्षणया । नाम्ना-संज्ञया। आहारदेहयोरुभयोरपि पिण्डशब्दाभिधेयत्वाविशेषात् । यक्त्या-शास्त्रोक्तविधिना। स्वार्थ:-आहारस्योपचयोजोलक्षणं देहकार्य, देहस्य च धर्मसिद्धिलक्षणमात्मकार्यम् । हापयेत्-परिचारकादिभिस्त्याजयेत् ॥१४॥ अथ सल्लेखनाविधिपूर्वकं समाधिमरणोद्योगविधिमाह
उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतैः ।
संलिख्य गणमध्ये स्यात् समाधिमरणोद्यमी ॥१५॥ संलिख्य-सम्यक कृशीकृत्य । उक्तं च
'उपवासादिभिरने कषायदोषे च बोधिभावनया।
कृतसल्लेखनकर्मा प्रायेऽथ यतेत् गणमध्ये ॥' [ सो. उपा. ८९६ ] ॥१५।। विशेषार्थ-जिसकी शरीरमें आत्मबुद्धि है उसे बहिरात्मा या मिथ्यादृष्टि कहते हैं। यह बहिरात्मा आत्मज्ञानसे विमुख होकर अपने शरीरको ही आत्मा मानता है। मनुष्यके शरीर में रहने वाले आत्माको मनुष्य मानता है। तिर्यंचके शरीरमें रहनेवाले आत्माको तिर्यंच मानता है । देवके शरीर में रहनेवाले आत्माको देव मानता है और नारकीके शरीरमें रहनेवाले आत्माको नारकी मानता है। शरीर में आत्मबुद्धि करनेसे ही शरीरसे सम्बन्ध रखने वालोंमें पुत्र पत्नी आदिकी कल्पना होती है। अतः संसारके दुःखका मूल शरीरमें आत्मबुद्धि ही है। इसे छोड़ने पर ही जीवका कल्याण हो सकता है। यह भावना समाधिमरण करनेवालेकी होनी चाहिए। कायसे ममत्व भावना त्यागे विना कायसे सम्बन्ध रखनेवालोंसे भी ममत्व नहीं छूट सकता। और उसके छूटे विना समाधिमें मन नहीं लगता ॥१३॥
अब आहार कब छोड़ना चाहिए, यह कहते हैं
पिण्ड शरीरको भी कहते हैं और पिण्ड भोजनको भी कहते हैं। इस तरह दोनोंमें नामसे समानता है और जातिसे भी समानता है क्योंकि दोनों ही पुद्गल हैं। फिर भी आश्चर्य है कि पिण्ड अर्थात् शरीरमें शास्त्रोक्त विधिसे दिया गया भी पिण्ड अर्थात् भोजन जब स्वाथेका नाश करता है अर्थात् शरीरको हानि पहुँचाता है तब आहारका त्याग करा देना चाहिए ॥१४॥
विशेषार्थ-यहाँ आश्चर्य इस बातका है कि सजातीय भी स्वार्थका नाश करता है। आहारका स्वार्थ है शरीरमें बल और ओजकी वृद्धि करना । और देहका स्वार्थ है धर्मसिद्धि । किन्तु जब शरीरमें बल और ओज बढ़ाने के लिए दिया गया आहार, वह भी वैद्यके कहे अनुसार, फिर भी यदि आहार शरीरको हानि पहुँचाता है तो आहार छुड़ा देना ही उचित है ॥१४॥
सल्लेखनाकी विधिके साथ समाधिमरणके उद्योगकी विधि कहते हैं
समाधिमरणके लिए प्रयत्नशील साधक उपवास आदिके द्वारा शरीरको और श्रुतज्ञानरूपी अमृतके द्वारा कषायको सम्यक् रूपसे कृश करके चतुर्विध संघमें उपस्थित होवे । अर्थात् जहाँ चतुर्विध संघ हो वहाँ चला जाये ॥१५॥
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