________________
षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय )
३०५ दानशीलोपवासाभिदादपि चतुविधः ।
स्वधर्मः श्रावकैः कृत्यो भवोच्छित्त्यै यथायथम् ॥५१॥ स्पष्टम् ॥५१॥ अथ व्रतरक्षायां यत्नविधापनार्थमुत्तरप्रबन्धः
प्राणान्तेऽपि न भक्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम् ।
प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे भवे ॥५२॥ स्पष्टम् ॥५२॥ भोजन करनेको वीरचर्या कहते हैं। दिनमें प्रतिमायोग धारण करनेको दिनप्रतिमा कहते हैं। ग्रीष्म ऋतुमें सूर्यकी ओर मुख करके पर्वतके शिखर पर, वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे, शीतकालमें रात के समय चौराहेपर खड़े होकर कायक्लेश करनेको आतापन आदि योग कहते हैं। ये सब मुनिकी क्रियाएँ हैं । श्रावक इनके करनेका पात्र नहीं होता। इसी तरह सूत्र जो परमागम है तथा प्रायश्चित्त शास्त्र है उनके भी पढ़नेका श्रावकको अधिकार नहीं है । 'सिद्धान्त' का अर्थ आशाधरजीने अपनी टीकामें सूत्ररूप परमागम कहा है । जो गणधरके द्वारा कहा गया हो या प्रत्येक बुद्धके द्वारा कहा गया हो या श्रुतकेवलीके द्वारा या अभिन्न दसपूर्वीके द्वारा कहा गया हो उसको सूत्र कहते हैं। वर्तमानमें उपलब्ध कोई सिद्धान्त ग्रन्थ ऐसा नहीं है जो इनके द्वारा कहा गया हो । षट्खण्डागम, कसाय पाहुड़ और महाबन्ध पूर्वोसे सम्बद्ध होनेसे पूर्व सम्बन्धी सिद्धान्त ग्रन्थ हैं। पीछे आशाधरजीने पाक्षिकके प्रकरणमें (२।२१) नवीन जैन धर्म धारण करनेवालेको भी द्वादशांग और चौदह पूर्वोके आश्रित उद्धारग्रन्थोंको पढ़नेकी प्रेरणा की है । वर्तमान उक्त सिद्धान्त ग्रन्थ उसीमें है। आचार्य वसुनन्दीके श्रावकाचारमें उक्त कथन मिलता है ॥५०॥ __संसारपरिभ्रमणका विनाश करने के लिए दान, शील, उपवास और जिनादि पूजाके भेदसे भी चार प्रकारका अपना आचार श्रावकों को अपनी-अपनी प्रतिमासम्बन्धी आचरणके अनुसार करना चाहिए ॥५१॥
विशेषार्थ-आशय यह है कि दर्शन, व्रत आदिके भेदसे ग्यारह प्रकारका आचार ही केवल ग्राह्य नहीं है किन्तु दान, शील, उपवास और पूजा भी यथायोग्य करना चाहिए। आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारके बारहव परिच्छेदमें पूजा, शील और उपवासका वर्णन किया है। गुरुकी साक्षिपूर्वक ग्रहण किये गये व्रतोंके रक्षणका नाम शील है। इसीसे ग्रन्थकार यहाँसे आगे व्रतोंकी रक्षाका यत्न करनेके लिए कहते हैं ॥५१॥
गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी, दीक्षागुरु और प्रमुख धार्मिक पुरुषोंके सामने लिये गये व्रतको प्राणान्त होनेपर भी नहीं भंग करना चाहिए। अर्थात् व्रतभंग न करनेपर यदि प्राणोंका भी नाश होता हो तब भी व्रतभंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणोंका अन्त तो उसी क्षणमें दुःखदायी होता है । किन्तु व्रतका भंग भव-भवमें दुःखदायी होता है ।।५२।।
१. 'भक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसजिताः। न कदाचिद् व्रतं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ॥'
-अमि, श्रा. १२१४४ सा.-३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org