Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 338
________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय ) किंपि पदि भिक्खं भुंजिज्जो सोहिदूण जन्तेण । पक्खालिऊण पत्तं गच्छेज्जा गुरुसयासम्मि || जइ एवं ण चईज्जो का रिसिगोहणम्मि चरियाए । वित्तिय भिक्खं पवित्तिणियमेण ता कुज्जा ॥ गन्तूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा । गहिऊण तदो सव्वं आलोएज्जो पयत्तेण ॥' [ वसु श्रा. ३०१-३१० ] ॥४७॥ अथ द्वितीयं लक्षयति तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसञ्ज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमा त्रयुग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखनम् ॥४८॥ लुञ्चति -हस्तेनोत्पाटयति । उक्तं च 'गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य | भैक्षाशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥' [ र. श्रा. १४० ] ॥४८॥ स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥ ४९ ॥ अन्येन - गृहस्थादिना । उक्तं च 'एमेव होदि बिदिओ णवरि विसेसो कुणिज्ज नियमेण । लोचं धरेज्ज पिच्छं भुंजेज्जा पाणिपत्तम्मि ||' [ बसु. श्रा. ३११ ] फिर भी उसका अलग से कथन यह बतलाने के लिए किया है कि अन्य तपोंसे वैयावृत्य तप श्रावकको विशेषरूपसे करना चाहिए। स्वामी समन्तभद्रने कहा है कि गुणोंमें अनुरागवश संयमीजनों की आपत्तिको दूर करना, पैर मर्दन करना, अन्य भी जितना उपकार है वह सब वैयावृत्य है ||४७|| उद्दिष्टविरतके दूसरे भेदका स्वरूप कहते हैं— दूसरे उत्कृष्ट श्रावककी क्रिया पहलेके समान है । विशेष यह है कि यह 'आर्य' कहलाता है, दाढ़ी, मूँछ और सिरके बालोंको हाथसे उखाड़ता है, केवल लँगोटी पहनता है. और मुनिकी तरह पीछी रखता है ||४८|| अन्य गृहस्थ आदिके द्वारा अपने हस्तपुटमें ही दिये गये आहारको सम्यकरूपसे शोधन करके खाता है । ( इस प्रकार विशेष आचारको कहकर सामान्य आचारको कहते हैं ) वे सभी ग्यारह श्रावक परस्पर में 'इच्छामि' इस प्रकारके उच्चारण द्वारा विनय व्यवहार करते हैं ||४९ ॥ विशेषार्थ - लाटी संहिता में वसुनन्दि श्रावकाचारकी गाथा ३-१ उद्धृत है जिसमें उत्कृष्ट श्रावकके दो भेद कहे हैं। इससे स्पष्ट है कि लाटीसंहिताकारने वसुनन्दीका अनुसरण किया है । किन्तु उन दोनोंको ऐलंक और क्षुल्लक नाम दे दिये हैं । ऐलक लँगोटी १. ' व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ - श्रा, ११२ श्लो. । Jain Education International २. उत्कृष्टः श्रावको द्वेधा क्षुल्लकश्चैलकस्तथा । एकादशव्रतस्थौ द्वौ स्तो हौ निर्जरको क्रमात् ॥ - लाटी सं., ७।५५ आदि । ३०३ For Private & Personal Use Only ६ ९ १२ १५ www.jainelibrary.org

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