Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 311
________________ २७६ धर्मामृत ( सागार ) तदेव भूयो भावयति पुरेऽरण्ये मणौ रेणौ मित्रे शत्रौ सुखेऽसुखे। जीविते मरणे मोक्षे भवे स्यां समधीः कदा ॥४१॥ पुर इत्यादि । पुरारण्यादिषु तुल्यमतित्वमन्यस्यापि भवेदसौ तु परमवैराग्योपगतो मोक्षभवयोरपि निर्विशेषत्वमर्थयते _ 'मोक्षे भवे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तम।' इति श्रुतेः ॥४१॥ अथ यतिधर्मचर्याकाष्ठाधिरोहणमाशंसति मोक्षोन्मुखक्रियाकाण्डविस्मापितबहिर्जनः । कदा लप्स्ये समरसस्वादिनां पङ्क्तिमात्मदृक् ॥४२॥ क्रियाकाण्डगुरुकुलोपासनक्लेशातापनादियोगादि। पंक्ति-लक्षणया सजातीयत्वम् । आत्मदृक्१२ अात्मदर्शी सन् ॥४२॥ उत्पत्तिमें निमित्त है, उसका अवगाहन करना कठिन है तथा उसका पार पाना भी दुर्गम है अतः वह समुद्र के समान है। समुद्रका मथन करके अमृत निकालना जैसे दूसरे लोगोंके लिए दुर्लभ है वैसे ही जो जिनमार्गसे अनजान हैं उनके लिए मुनिधर्मका धारण करना ही दुर्लभ है, उसका मथन करके समतारूपी अमृतका तो कहना ही क्या है। जिनमागेको जाननेवालोंके लिए भी वह अत्यन्त दुर्लभ है। उनमें से भी विरल मनुष्य ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ॥४०॥ पुनः वही भावना भाता है नगरमें, वनमें, मणिमें, धूलिमें, मित्रमें, शत्रुमें, सुखमें, दुःखमें, जीवनमें, मरणमें और मोक्षमें, संसारमें कब मैं समान बुद्धिवाला होऊँगा ॥४१॥ विशेषार्थ-ये सब एक दूसरेसे विपरीत हैं। नगर समृद्धिका स्थान है, जंगल उससे विपरीत है । नगरसे राग होता है, जंगलसे द्वेष होता है । आगेके भी सबकी यही स्थिति है। किन्तु मुझे इनमें से किसीसे भी राग-द्वेष न होकर सबमें समान रूपसे उपेक्षा भाव रहे यही भावना है। यहाँ विशेष बात यह है कि नगर-वन आदिमें समान बुद्धि दूसरोंकी भी हो सकती है। किन्तु परम वैराग्य अवस्थाको प्राप्त जिनधर्मी तो मोक्ष और संसारमें भी समभावकी कामना करता है। कहा भी है-हे मुनिश्रेष्ठ ! मोक्ष और संसारमें सर्वत्र निस्पृह हो ॥४१॥ __ आगे मुनिधर्मकी चरम सीमाकी प्राप्तिकी भावना करता है-- ___ मोक्षमें लगे हुए साधुवर्गके क्रियाकाण्डसे बहिरात्मदृष्टि वाले लोगोंको आश्चर्यचकित करते हुए मैं आत्मदर्शी होता हुआ समरसका स्वाद लेनेवालोंकी श्रेणीको कब प्राप्त होऊँगा ॥४२॥ विशेषार्थ-अनन्तज्ञान आदि चतुष्टयके आविर्भाव स्वभाववाले मोक्षमें लगे साधु पुरुषोंका बाह्य क्रियाकाण्ड है गुरुकुलकी उपासना, आतापन आदि योग, कायक्लेश आदि । इनसे बाह्य दृष्टि वाले लोग बहुत प्रभावित होते हैं। किन्तु ये सब हों और आत्मदर्शन न हो तो सब बेकार है । इसीसे मोक्षके लिए तत्पर साधुओंका बाह्य क्रियाकाण्ड अपनाकर बाह्य लोगोंको अचरज में डालनेके साथ आत्मदर्शी होनेकी भी कामना करता है । ध्याता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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