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धर्मामृत ( सागार ) अथ सचित्तविरतेभ्यः श्लाघते--
अहो जिनोक्तिनिर्णीतिरहो अक्षजितिस्सताम् ।
नालक्ष्यजन्त्वपि हरित् प्सान्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत् ॥१०॥ अलक्ष्याः --केवलागमगम्यत्वात् प्रत्यक्षाद्यसंवेद्याः । प्सान्ति--भक्षयन्ति ॥१०॥
अथ भोगोपभोगपरिमाणशीलातिचारत्वेनोक्तं सचित्तभोजनमिह त्यज्यमानं प्रतिमाभावं यातीत्युप६ दिशति--
सचित्तभोजनं यत्प्राङ्मलत्वेन जिहासितम् ।
व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्वचकितस्तच्च पञ्चमः ॥११॥ जिहासितं-परिहर्तुमिष्टं शीलोपदेशस्याम्यासदशाविषयत्वात् । स्वामी पुनर्भोगोपभोगपरिमाणशीलातिचारानन्यथा पठित्वा पञ्चमप्रतिमामेवमध्यगीष्ट--
'मूलफल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि ।
नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः॥ [ र. श्रा. १४१ ] ॥११॥ सर्वज्ञ देवके वचन सुने हैं कि हरित अंकुर आदिमें अनन्त जीव रहते हैं जिन्हें निगोद कहते हैं।' इसलिए पंचम श्रावकको दयामूर्ति कहा है ॥९॥
सचित्तविरतकी प्रशंसा करते हैं--
सचित्त त्यागके लिए सावधान सज्जन पुरुषोंका जिन भगवान्के वचनोंपर निश्चय आश्चर्यकारी है। उनका इन्द्रियजय विस्मय पैदा करता है। क्योंकि जिस वनस्पतिके जन्तु प्रत्यक्षसे नहीं देखे जाते केवल आगमसे ही जाने जाते हैं, ये प्राण जानेपर भी उसे नहीं खाते हैं ॥१०॥
विशेषार्थ--सचित्तविरत श्रावकोंकी दो विशेषताएँ आश्चर्य पैदा करनेवाली हैं-एक उनका जिनागमके प्रामाण्यपर विश्वास और दूसरे, उनका जितेन्द्रियपना। जिस वनस्पतिमें जन्तु दृष्टिगोचर नहीं होते, उसको भी न खाना उनकी प्रथम विशेषताका समर्थन करता है और प्राण चले जानेपर भी न खाना उनकी दूसरी विशेषताका समर्थन करता है ।।१०॥
अब कहते हैं कि भोगोपभोग परिमाण व्रतमें अतिचार रूपसे जिस सचित्त भोजनको त्याज्य कहा है वह यहाँ प्रतिमा रूप हो जाता है--
पहले शीलोंका कथन करते समय भोगोपभोग परिमाण नामक शीलके अतिचाररूपसे जो सचित्त भोजन व्रत प्रतिमाधारीके लिए त्याज्य कहा था, खाये जानेवाले सचित्त द्रव्यमें रहनेवाले जीवोंके मरणसे भीत पंचम श्रावक उस सचित्त भोजनको व्रत रूपसे त्याग देता है ॥११॥
विशेषार्थ-स्वामी समन्तभद्रने भोगोपभोगपरिमाणके अतिचार अन्य रूपसे कहे हैं । उनमें सचित्त भोजन नहीं है। इसलिए उन्होंने हरित मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, कन्द, फूल और बीजोंके नहीं खानेको सचित्तविरत कहा है। इसमें वनस्पतिके सभी प्रकार आ जाते हैं। किन्तु आशाधरजीकी तरह उन्होंने जल, नमक वगैरहके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा है। आशाधरजीका सचित्तविरत अप्रासुकका त्यागी होता है। किन्तु समन्तभद्र स्वामीके मतसे वह केवल सचित्त वनस्पतिका त्यागी होता है। यह उत्तरकालीन विकास प्रतीत होता है ॥११॥
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