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धर्मामृत ( सागार )
अथास्य सकलदत्तिमुत्तरप्रबन्धेन व्याचष्टे—
अथाहूय सुतं योग्यं गोत्रजं वा तथाविधम् । ब्रूयादिदं प्रशान् साक्षाज्जातिज्येष्ठसधर्मणाम् ॥२४॥ तथाविधं — योग्य पुत्राभावे तत्सदृशम् । प्रशान् - प्रशमपरः ||२४|| ताताद्ययावदस्माभिः पालितोऽयं गृहाश्रमः । विरज्यैनं जिहासूनां त्वमद्यार्हसि नः पदम् ॥ २५ ॥ तात -- स्वस्य पोष्यत्वगर्भपुत्रादेः प्रियत्वामन्त्रणमिदम् ॥ २५ ॥ पुत्रः पुपूषोः स्वात्मानं सुविधेरिव केशवः ।
य उपस्कुरुते वप्तुरन्यः शत्रुः सुतच्छलात् ॥ २६ ॥
पुत्रः स भवतीत्यध्याहारः । पुपुषोः -- शोधयितुमिच्छो: । सुविधे:: - ऋषभनाथस्य पूर्वभवे सुविधिनम्नो राज्ञः । उक्तं चार्षे-
'नृपस्तु सुविधिः पुत्रस्नेहाद् गार्हस्थ्यमत्यजन् ।
उत्कृष्टोपासकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ॥' [ महापु. १०।१५८ ]
गृहस्थकी नवीं प्रतिमा है । इससे पहले सुवर्ण आदिकी संख्या मात्र घटायी थी । अब धन सम्पत्तिका मूल से उन्मूलनरूप व्रत है । अपने एक शरीरमात्र के लिए वस्त्र, मकान आदि स्वीकृत है अथवा धर्मके साधन मात्र स्वीकृत हैं, शेष सब छोड़ देता है। इससे पहले मकान,
आदिका वह स्वामी था । वह सब निःशल्य होकर जीवनपर्यन्त के लिए सब प्रकार से छोड़ना चाहिए ।' यहाँ 'मकान' इसलिए कहा प्रतीत होता है कि अभी उसने गृहवास नहीं छोड़ा है। मकान के स्वामित्व से यहाँ अभिप्राय नहीं है। आगे परिग्रहके त्यागकी विधिका जो वर्णन है जिसे सकलदत्ति नाम दिया है उससे भी यही प्रकट होता है कि आचार्य वसुनन्दीने जो वस्त्रमात्रके सिवाय शेषका त्याग कहा है वही आशाधरजीको भी मान्य है और वही परिग्रहविरतका भाव है || २३॥
आगे परिग्रहविरत श्रावककी सकलदत्तिका वर्णन करते हैं
अथ शब्द अधिकारवाची है जो इस बातको सूचित करता है कि यहाँ से सकलदत्तिका अधिकार है। योग्य अर्थात् अपना भार उठाने में समर्थ पुत्रको अथवा योग्य पुत्रके अभाव में योग्य पुत्रके समान भाई या उसके पुत्र आदिको बुलाकर जाति में मुख्य साधर्मियोंके सामने नवम श्रावक इस प्रकार कहे ||२४||
हे तात! आजतक हमने इस गृहस्थाश्रमका यथाविधि निर्वाह किया। अब संसार शरीर भोगोंसे विरक्त होकर इसे हम छोड़ने के इच्छुक हैं। तुम हमारे पदको स्वीकार करने के लिए योग्य हो ||२५|
जैसे अपने आत्माको शुद्ध करनेको इच्छुक राजा सुविधिका उपकार उसके पुत्र केशवने किया, उसी प्रकार अपने आत्माको शुद्ध करनेके इच्छुक पिताका जो उपकार करता है वह पुत्र है । और जो ऐसा नहीं करता वह पुत्रके रूपमें शत्रु है ||२६||
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अस्त्यात्मैकशरीरार्थं वस्त्रवेश्मादि स्वीकृतम् । धर्मसाधनमात्रं वा शेषं निःशेषणीयताम् ॥ स्यात्पुरस्तादितो यावत्स्वामित्वं सद्मयोषिताम् । तत्सर्वं सर्वतस्त्याज्यं निःशल्यं जीवनावधि ॥'
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— लाटी ७।३९-४२ ।
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