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धर्मामृत ( सागार) धन्यास्ते जिनदत्ताद्याः गृहिणोऽपि न येऽचलन् ।
तत्तादृगुपसर्गोपनिपाते जिनधर्मतः॥४४॥ जिनदत्ताद्याः-आदिशब्देन वारिषेणकुमारादयः । जिनधर्मतः-जिनोक्ताज्जिनसेविताद्वा सामायिकात् ॥४४॥ अथ व्रतिकप्रतिमामुपसंहरन्तदनुष्ठायिनः फलविशेषमाह
इत्याहोरात्रिकाचारचारिणि व्रतधारिणि ।
स्वर्गश्रोः क्षिपते मोक्षश्रीर्षयेव वरस्रजम् ॥४५॥ स्पष्टम् । उक्तं च
पञ्चाणुव्रतनिधयो निरतिक्रमणाः फलन्ति सुरलोकम् ।
यत्रावधिरष्टगुणा दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥ [ र. था. ६३ ] इति भद्रम् । इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां
पञ्चदशोऽध्यायः ।
वे जिनदत्त श्रेष्ठी आदि धन्य हैं, जो गृहस्थ होते हुए भी शास्त्रमें प्रसिद्ध तथा असाधारण उपसर्गोंके आनेपर जिन भगवान के द्वारा प्रतिपादित सामायिकसे विचलित नहीं हुए ॥४४॥
विशेषार्थ-जिनदत्त श्रेष्ठी चतुर्दशीकी रात्रिमें श्मशानमें जाकर प्रतिमायोग धारण करता था। एक बार दो देवोंने परीक्षाके लिए उसपर घोर उपसर्ग किया । किन्तु वह ध्यानसे विचलित न हुआ। तब देवोंने उसका बहुत आदर-सत्कार किया ॥४४॥
___ आगे बतिक प्रतिमाका उपसंहार करते हुए उसके पालन करनेवालेको प्राप्त होनेवाले फलविशेषको कहते हैं
। इस प्रकार दिन और रातकी सम्पूर्ण क्रियाओंका पालन करनेवाले व्रत प्रतिमाधारीमें मानो मोक्षरूपी लक्ष्मीकी ईर्ष्या से ही स्वर्गकी लक्ष्मी वरमाला डाल देती है। अर्थात् उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ।।४५।।
इस प्रकार पं. आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मामृतकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीकानुसारिणो हिन्दी टीकामें आदिसे १५वाँ और सागारधर्मका
षष्ठ अध्याय समाप्त हुआ।
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