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अथ प्रोषधोपवासा तिचारपरिहारार्थमाह
चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
ग्रहणास्तरणोत्सर्गात नवेक्षाप्रमार्जनान् । अनादरमनैकाग्र्यमपि जह्यादिह व्रते ॥४०॥
उपलक्षणात्तन्निक्षेपोऽपि ।
ग्रहणं -- अर्हदादिपूजोपकरणपुस्तकादेरात्मपरिधानाद्यर्थस्य चादानम् । आस्तरणं - संस्तरोपक्रमः । उत्सर्गः - विण्मूत्रादीनां त्यागः । अनवेक्षाप्रमार्जनान् - अवेक्षा जन्तवः सन्ति न सन्तीति वा चक्षुषावलोकनम् । प्रमार्जनं मृदुनोपकरणेन प्रतिलेखनम् । न स्तस्ते येषु तान् । इह चानवेक्षया दुरवेक्षणमप्रमार्जनेन च दुष्प्रमार्जनं संगृह्यते, नञः कुत्सार्थस्यापि दर्शनात् । यथा कुत्सितो ब्राह्मण: अब्राह्मणः । अनादरं क्षुलीडितत्वादावश्यकादिष्वनुत्साहम्, प्रोषवत्रते एव वा । तद्वदनं कारयमपि । यशस्तिलके
त्वेवमुक्तम्
'अनवेक्षाप्रतिलेखन दुष्कर्मारम्भदुर्मनस्काराः ।
स्वावश्यक विरतियुताश्चतुर्थमेते विनिघ्नन्ति || ' [ सो. उपा. ७५६ ] ॥४०॥ अथातिथिसंविभागव्रतं लक्षयति
पाँच पाप, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अंजन और नस्यका निषेध किया है । तथा धर्मामृतका पान करते हुए ज्ञान-ध्यानमें तत्पर रहनेपर जोर दिया है । अमृतचन्दजीने प्रातः उठकर प्रातःकालीन क्रियाकल्प करके प्रासुक द्रव्यसे जिनपूजन करनेका निर्देश किया है ||३९||
सा. - ३१
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प्रोषधोपवासव्रतके अतीचार कहकर उन्हें दूर करनेकी प्रेरणा करते हैं
इस प्रोषधोपवास व्रतमें बिना देखे और बिना कोमल उपकरणसे साफ किये या दूरसे ही देखकर और दुष्टतापूर्वक साफ करके उपकरणोंका ग्रहण, संस्तरे आदिका बिछाना, मलमूत्र का त्याग तथा अनादर और अनैकाग्र्यको छोड़ना चाहिए ॥४०॥
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विशेषार्थ– प्रोषधोपवासके पाँच अतीचार हैं-ग्रहण, आस्तरण, उत्सर्ग, अनादर और अनैकाग्र्य | पहले तीनके साथ अनवेक्षा और अप्रमार्जन लगता है । जन्तु हैं या नहीं यह आँखोंसे देखना अवेक्षा है । और कोमल उपकरणसे साफ करना, पोंछना, झाड़ना आदि प्रमाजन है । ये दोनों नहीं होना अनवेक्षा और अप्रमार्जन है । यहाँ अनवेक्षासे दूर से देखना और अप्रमार्जनसे दुष्टतापूर्वक प्रमार्जन करना भी लिया जाता है। बिना ठीकसे देखे और बिना कोमल उपकरणसे साफ किये अर्हन्त आदिकी पूजाके उपकरणों, पुस्तकों और अपने पहननेके वस्त्र आदिको ग्रहण करना तथा रखना, संस्तरा बिछाना, मल-मूत्र आदि त्यागना ये तीन अतीचार हैं। भूखसे पीड़ित होनेसे आवश्यकों में अथवा प्रोषधोपवास में ही आदरका न होना और मनका स्थिर न रहना ये दो, इस तरह पाँच अतीचार छोड़ने चाहिए । अनैकाग्र्य के स्थान में तत्त्वार्थसूत्र और पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्मृत्यनुपस्थान तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अस्मरण नामका अतीचार है । इन सबके अर्थ में कोई भेद नहीं है । सोमदेव सूरिने कहा है- 'बिना देखे, बिना साफ किये किसी भी सावद्यकार्यको करना, बुरे विचार लाना, सामायिक आदि आवश्यक कर्मोंको न करना ये काम प्रोषधोपवासव्रत के घातक हैं' ||४०||
अब अतिथिसंविभाग व्रतका लक्षण कहते हैं
१. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि । त. सू. ७।३४ ।
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