________________
२४६
धर्मामृत ( सामार) नवकोट्यः-मनोवाक्कायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमतानि । अथवा देयशुद्धिस्तत्कृते च दातृपात्रशुद्धी, दातश द्धिस्तत्कृते च देवपात्रशुद्धी। पात्रशुद्धिस्तत्कृते च देयदातशुद्धी चेत्यार्पोक्ताः । पतिः- स्वामी प्रयोक्तेत्यर्थः । भक्तिः -पात्रगुणानुरागः। श्रद्धा-पात्रदानफले प्रतीतिः। सत्त्वं-यतः स्वल्पवित्तस्यापि स्वाट्याश्चर्यकारिदानं स्यात् । तष्टि:-दत्ते दीयमाने च प्रहर्षः। ज्ञानं-द्रव्यादिवेदित्वम् । अलौल्यंसांसारिकफलानपेक्षा । क्षमा---दुर्निवारकालुष्यकारणोत्पत्तावपि कोपाभावः । तदुक्तं
'भाक्तिकं तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम् ।
सात्त्विक क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ।।' [ अमि. श्रा. ९।३ ] किं च सत्त्वादिगुणदातकं दानमपि सात्त्विकादिभेदात्त्रेधा । तदुक्तं
'आतिथेयं स्वयं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणम्।। गुणाः श्रद्धादयो यत्र तदानं सात्त्विक विदुः ।। यदात्मवर्णनप्रायं क्षणिकाहार्यविभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं दानं तद राजसं मतम् ।।
विशेषार्थ-मन, वचन, काय और प्रत्येकसे कृत कारित अनुमोदना ये नौ कोटियाँ हैं। इनसे विशुद्ध दान जो देता है वह दाता है। महापुराणके अनुसार नौ कोटियाँ इस प्रकार हैं-देय गुद्धि और उसके लिये आवश्यक दाता और पात्रकी शुद्धि ये तीन । दाताकी शुद्धि और उसके लिए आवश्यक देय और पात्रकी शुद्धि ये तीन । पात्र शूद्धि और उसके लिए आवश्यक देय और दाताकी शद्धि। ये नौ शद्धियाँ हैं। अर्थात् दानके मुख्य आश्रय तीन हैं-दाता जो दान देता है, पात्र जो दान ग्रहण करता है और देय वस्तु । प्रत्येक की शुद्धिके साथ शेष दो की भी शुद्धि आवश्यक है। इन नौ कोटियोंसे विशुद्ध अर्थात् पिण्ड शुद्धिमें कहे गये दोषोंके सम्पर्कसे रहित दानका जो देनेवाला है वह दाता है उसके सात गुण हैं। दाताके सात गुणोंकी परम्परा बहुत प्राचीन है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में यद्यपि सात गुणों के नाम नहीं गिनाये किन्तु दाताको सात गुण सहित होना चाहिए यह कहा है। महापुराणम भगवान् ऋषभदेवके आहारक प्रसगस दानके लिए उपयोगी सभा बाताका कथन है। उसमें दाताके सात गुणों का स्वरूप भी कहा है। बादके तो सभी श्रावकाचारोंमें इनका कथन है। सोमदेवके उपासकाध्ययन, अमितगति श्रावकाचार आदि में भी उनका स्वरूप कहा है। अमितगतिने सात गुणोंके भेदसे दाताके भी सात भेद कहे हैं-भाक्तिक, तौष्टिक, श्राद्ध, विज्ञानी, अलोलुपी, सात्त्विक और क्षमाशील। जो धमात्माकी सेवामें स्वयं तत्पर रहता है उसमें आलस्य नहीं करता, उस शान्त दाताको भाक्तिक कहते हैं अर्थात् वह पात्रके गणोंमें अनुराग रखता है। जिसको पहले किये गये और वर्तमानमें दिये जानेवाले दानसे हर्ष है वह दाता तौष्टिक अथात् दानसे हर्ष होना, देयमें आसक्ति न होना तुष्टि गुण है। साधुओंको दान देनेसे इच्छित फलकी प्राप्ति होती है ऐसी जिसकी श्रद्धा है वह दाता श्राद्ध अर्थात श्रद्धागुणसे युक्त है अर्थात् पात्रदानके फलमें प्रतीतिका होना श्रद्धा है। जो द्रव्य क्षेत्र काल भावका सम्यकपसे विचार करके साधुओंको दान देता है वह दाता
१. महा पु. २०११३६-३७ । २. 'श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानं चापलब्धता ।
क्षमा त्यागश्च सप्तते प्रोक्ता दानपतेर्गुणाः' ॥-महापु. २०१८२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org