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धर्मामृत ( सागार ) 'जयन्ति निजिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः ।।
सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वराः ॥' [ इत्यादिना वा वाचनिकनमस्कारेण जलादिपूजाष्टकेन वा अभिमुखं पूजयित्वा । एषः क्रमः श्रुतसूर्योरपि यथास्वं कल्प्यः । स एष जघन्येन वन्दनाविधिः । प्रकर्षवृत्यास्य प्रथममेव गृहेऽनुष्ठानोपदेशात् ॥१श।
ततश्चावर्जयेत्सर्वान्यथाहं जिनभाक्तिकान् ।
व्याख्यातः पठतश्चाहंदवचः प्रोत्साहयेन्महः ॥१२॥ यथार्ह-यथायोग्यप्रतिपत्त्या । तत्र मुनीन् 'नमोऽस्तु' इति । आयिका बन्दे इति । श्रावकान् 'इच्छामि' इत्यादि प्रतिपत्त्या । उक्तं च
'अहंद्रपे नमोऽस्तु स्याद्विरतौ विनयक्रिया। अन्योन्यं क्षुल्लके चाहमिच्छाकारवचः सदा ॥ [ सो. उपा. ८१६ ] ॥१२॥ स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्धरेच्च विपद्धतान् ।
पक्वज्ञानदयस्यैव गुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदाः ॥१३॥ पक्वं-परिणतम् ॥१३॥
विशेषार्थ-ईर्याका अर्थ है गमन और पंथाका अर्थ है मार्ग। गमन जिसका मार्ग है उसे ईर्यापथ कहते हैं। सावधानीपूर्वक चलते हुए भी जो संयमकी विराधना होती है उसकी सम्यक् शुद्धिको ईर्यापथ संशुद्धि कहते हैं यह प्रतिक्रमणके द्वारा होती है। प्रतिक्रमण पाठमें आता है-'जाव अरहंताणं भयवंताणं णमोक्कारं करोमि' इत्यादि । अतः प्रतिक्रमण
बाद वाचनिक नमस्कारके द्वारा या जलादि अष्ट दव्य द्वारा देवशास्त्रगरुकी पजा करनी चाहिए। यह तो लघु वन्दनाविधि है। बड़ी वन्दनाविधि तो वह घर पर ही कर लेता है ॥११॥
- प्रत्याख्यान प्रकट करनेके साथ समस्त क्रियाविधिको समाप्त करनेके बाद अन्तिदेवके सब आराधकोंकी यथायोग्य विनय करे । और जो परमागम रूप, न्यायशास्त्र रूप और व्याकरणशास्त्ररूप जिनागमका व्याख्यान करनेवाले, छात्रोंको पढ़ानेवाले उपाध्याय हैं और पढ़नेवाले विद्यार्थी हैं, बार-बार उनको उत्साहित करे ॥१२॥
विशेषार्थ-यथायोग्य विनय करनेसे अभिप्राय यह है कि मुनियोंको 'नमोऽस्तु' कहकर उनका अभिवादन करे। आर्यिकाओंको 'वन्दे' कहे और श्रावकोंको 'इच्छामि' इत्यादि कहकर विनय करे। कहा है-मुनियोंके लिए 'नमोऽस्तु' विरतियोंके लिए विनय क्रिया अर्थात् वन्दे और क्षुल्लकको भी वन्दे कहे तथा परस्परमें इच्छाकार कहना चाहिए ॥१२॥
शास्त्रोक्त विधानके अनुसार व्यंजन शुद्धि आदि पूर्वक स्वाध्याय करे और शारीरिक और मानसिक कष्टोंसे पीड़ित दीन पुरुषोंको कष्टोंसे छुड़ावे। क्योंकि जिसका ज्ञान और दया गुण पक गया है अर्थात् जिसने दोनों गुणोंको पूरी तरहसे आत्मसात् कर लिया है उसीके सब गुण इच्छित अर्थको देनेवाले अथवा मुक्ति देनेवाले होते हैं ॥१३॥
विशेषार्थ-शास्त्र अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे उसके पाँच प्रकार हैं। इनका कथन अनगार धर्मामृतमें आ चुका है। इसी तरह सम्यग्ज्ञानके भी व्यंजनशुद्धि आदि आठ अंग हैं । उनका वर्णन भी उक्त प्रकरणमें आ चुका है । श्रावकको ज्ञानी होनेके साथ दयालु भी होना चाहिए । इसलिए जो भी दीन-हीन कष्टपीड़ित प्राणी हों यथाशक्ति उनका कष्ट दूर करनेका प्रयत्न करना
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