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धर्मामृत ( सागार) मुक्त्यन्तेत्यादि । उक्तं च
'क्षितिगतमिव वटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलति च्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् ॥' [ र. श्रा. ११६ ]
तथा
'पात्रदाने फलं मुख्यं मोक्षसस्यं कृषेरिव ।
पलालमिव भोगस्तु फलं स्यादानुषङ्गिकम् ॥' [ सो० उ० ]॥४८॥ अथ गृहव्यापारप्रभवपातकापनोदसामयं मुनिदानस्य दर्शयति
पञ्चसूनापरः पापं गृहस्थः संचिनोति यत् ।
तदपि क्षालयत्येव मुनिदानविधानतः ॥४९॥ स्पष्टम् । उक्तं च
'गृहकर्मणापि निचितं कर्म विमाष्टि खलु गृहविमुक्तानाम् ।
अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥' [ र. श्रा. १२४ ] अपि च
'कान्तात्मजद्रविणमुख्यपदार्थसार्थप्रोत्थातिघोरघनमोहमहासमुद्रे । पोतायते गृहिणि सर्वगुणाधिकत्वाद्दानं परं परमसात्त्विकभावयुक्तम् ॥'
[पद्म. पञ्च. २२५ ] ॥४९॥ अथ दानस्य कर्बादीनां फलानि दृष्टान्तमुखेन स्पष्टयतिहै और जो दान देता है वह पुण्यकर्मका बन्ध करता है। यदि दान सात्त्विक होता है तो विशेष पुण्यका बन्ध होनेसे दाता भोगभूमिसे स्वर्गमें जाकर और वहाँसे चक्रवर्ती आदि पद प्राप्त करके मोक्ष जाता है। समन्तभद्र स्वामीने कहा है-'पृथ्वीमें बोये बोट के बजकी तरह पात्रको दिया अल्प भी दान समयपर बहुत फल देता है।' सोमदेव सूरिने कहा हैजिससे अपना और परका उपकार हो वही दान है। जैसे खेतीका मुख्य फल धान्य है वैसे ही पात्रदानका मुख्य फल मोक्ष है। और जैसे खेतीका आनुषंगिक फल भूसा है वैसे ही पात्रदानका आनुषंगिक फल भोग है ॥४८॥ _ आगे कहते हैं कि मुनिदानमें घरके व्यापारसे उत्पन्न हुए पापोंको दूर करनेकी शक्ति है
चक्की, चूल्हा, मूसल, बुहारी और पानीकी घड़ौंची ये पाँच सूना हैं। इन पाँच सूनाओंमें तत्पर गृहस्थ जिस पापका संचय करता है मुनिदान देनेसे वह भी धुल जाता है ॥४९॥
विशेषार्थ-रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें भी यही कहा है कि घरबारसे मुक्त अतिथियोंका समादर घरके कामोंसे बँधे हुए पापको उसी प्रकार धो देता है जैसे पानी खूनको धो देता है। स्वामी समन्तभदने इससे आगे नवधा भक्तिका भी फल बतलाया है कि तप ही जिनकी निधि है उन तपोधन महर्षियोंको नमस्कार करनेसे उच्च गोत्र, दान देनेसे भोग, उपासनासे आदर सत्कार, भक्तिसे सुन्दररूप और स्तवन करनेसे कीर्ति प्राप्त होती है। आचार्य पद्मनन्दिने कहा है-गृहस्थ जीवन घोर महामोह समुद्ररूप है। उसमें परम सात्त्विकदान जहाजके समान है ॥४९।।
आगे दानके कर्ता आदिको जो फल प्राप्त होता है उसे दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं
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