________________
२४२
धर्मामृत ( सागार ) वतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण ।
द्रव्यविशेषवितरणं दातविशेषस्य फलविशेषाय ॥४१॥ व्रतं नियमेन सेव्यतया प्रतिपन्नत्वात् । तया च सत्यतिथ्यलाभेऽपि तहानफलभाक्त्वोपपत्तेः । अतिथिसंविभाग:-अतिथेः संगतो निर्दोषो विभागः स्वार्थकृतभक्ताद्यंशदानरूपः ।।४१।। अथातिथिशब्दव्युत्पादनमुखेनाति थिलक्षणमाह
ज्ञानादिसिद्धयर्थतनस्थित्यर्थान्नाय यः स्वयम।
यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः ॥४॥ ज्ञानादीत्यादि । उक्तं च
'कायस्थित्यर्थमाहारः कायो ज्ञानार्थमिष्यते। ज्ञानं कर्मविनाशाय तन्नाशे परमं सुखम् ॥[
विशेष फलके लिए, विशेष विधिसे, विशेष दाताका, विशेष पात्रके लिए, विशेप द्रव्य देना अतिथिसंविभाग व्रत है ।।४।।
विशेषार्थ-तत्त्वार्थ सूत्र में ( ७३९) कहा है कि विधि, द्रव्य, दाता और पात्रकी विशेषतासे दानके फलमें विशेषता होती है। उसीके अनुसार यहाँ प्रत्येकके साथ विशेष शब्दका प्रयोग किया है। इनका विशेष स्वरूप आगे कहेंगे। अतिथिको सम्यक् अर्थात् निर्दोष, विभाग अर्थात अपने लिए किये गये भोजन आदिका भाग देना अतिथिसंविभाग व्रत इस व्रतका पालन श्रावकको नियमसे करना चाहिए। ऐसा करनेसे अतिथिके न मिलनेपर भी अतिथिदानका फल प्राप्त होता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसका नाम वैयावृत्य है। जिनका कोई घर नहीं है, जो गुणोंसे सम्पन्न है ऐसे तपस्वियोंको बिना किसी प्रत्युपकारकी भावनाके जो अपने सामर्थ्य के अनुसार दान देना है उसे वैथावृत्य कहते हैं। उनके गुणोंमें अनुरागसे उनके कष्टोंको दूर करना, उनके पैर दबाना, अन्य भी जो संयमियोंका उपकार किया जा सकता है वह सब वैयावृत्य है। सात गुणोंसे सहित शुद्ध श्रावकके द्वारा पाँच पाप क्रियाओंसे रहित मुनियोंका जो नवधा भक्तिसे समादर किया जाता है उसे दान कहते हैं । घरबार छोड़ देनेवाले अतिथियोंका सभादर घरके कार्योंसे संचित पापकर्मको उसी तरह धो देता है जैसे पानी रक्तको धो देता है। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र स्वामीने इस व्रतकी प्रशंसा की है। सोमदेव सूरिने उपासकाध्ययनके तेतालीसवें कल्पमें, और आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारके नवम परिच्छेदमें दानका बहुत विस्तारसे वर्णन किया है ।।४।।
अतिथि शब्दकी व्युत्पत्तिके द्वारा उसका लक्षण कहते हैं ----
अन्नका प्रयोजन शरीरकी आयुश्यन्त स्थिति है और शरीरकी स्थितिका प्रयोजन ज्ञानादिकी सिद्धि है। उस अन्नके लिए जो स्वयं बिना बुलाये संयाकी रक्षा करते हुए सावधानतापूर्वक दाताके घर जाता है वह अतिथि है। अथवा जिसकी कोई तिथि . नहीं है वह अतिथि है ॥४२॥
१. 'दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गणरागात । वैधावत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥'
---र. श्रा. १११-११२ आदि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org