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धर्मामृत ( सागार )
जो सदि समभावं मणम्मि सरिदूण पंचणमकारं । वर अपारेहि संजुत्तजिणसरूवं वा ॥ सिद्धसरूवं झायदि अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं ।
खणमेक्कमविचलग्गो उत्तम सामाइयं तस्स ॥ [ वसु. श्रा २७४-२७८ ] ॥२८॥
अथ सामायिक भावनासमयं नियमयन्नाह -
परं तदेव मुक्त्यङ्गमिति नित्यमतन्द्रितः ।
नक्तं दिनान्तेऽवश्यं तद्भावयेच्छक्तितोऽन्यदा ||२९||
अवश्यं - नियमेन । नास्ति वा वश्यं व्याध्यादि पारतंत्र्यं यत्र भावनाकर्मणि । अन्यदा - मध्याह्नादि
९ काले । उक्तं च-
'रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् ।
इतरत्र पुनः समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥' [ पुरुषा. १४९ ]
अपि च
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'सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम् । व्रतपञ्चक-परिपूरणकारणमवधानयुक्तेन ॥' [ र. श्रा. १०१ ] ॥२९॥
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होता है । इस तरह इन सब आचार्योंने आत्मध्यानको ही सामायिक कहा है । किन्तु सोमदेव सूरिने आप्तसेवाके उपदेशको समय और उसमें किये जानेवाले कार्यको सामायिक कहा उसे आशाधरजीने व्यवहार सामायिक कहा है । उपासकाध्ययनमें सामायिक व्रतके अन्तर्गत पूजाविधानका विस्तार से वर्णन है । इससे पहले इतना स्पष्ट और विस्तृत वर्णन पूजाविधिके बारेमें नहीं मिलता। आचार्य वसुनन्दीने भी दोनों प्रकारोंको सामायिक कहा है । उन्होंने लिखा है- 'शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने घर में ही प्रतिमाके सम्मुख होकर अथवा अन्य पवित्र स्थानमें पूर्वमुख या उत्तर मुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंचपरमेष्ठी, और जिनालयोंकी जो नित्य त्रिकाल वन्दना की जाती है वह सामायिक है । जो श्रावक कायोत्सर्ग में स्थित होकर लाभ अलाभको, शत्रु-मित्रको, संयोग-वियोगको, तृणकांचनको, चन्दन और कुठारको समभावसे देखता है तथा मनमें पंच नमस्कार मन्त्रको धारण करके उत्तम अष्ट प्रातिहार्योंसे युक्त अर्हन्त जिनके स्वरूप और सिद्ध भगवान् के स्वरूपको ध्याता है, अथवा संवेगसहित निश्चल अंग होकर एक क्षण भी उत्तम ध्यान करता है उसके उत्तम सामायिक होती है ।' श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने सावद्य कार्यों तथा आर्त और रौद्रध्यानको छोड़कर एक मुहूर्त तक समताभावको सामायिक कहा है ||२८||
आगे सामायिक की भावनाका समय बतलाते हैं
सामायिक ही मोक्षका उत्कृष्ट साधन है इसलिए आलस्य त्यागकर नित्य रात्रि और दिनके अन्तमें अवश्य सामायिकका अभ्यास करना चाहिए। तथा अपनी शक्तिके अनुसार मध्याह्न आदि अन्य कालमें भी अभ्यास करे ||२९||
विशेषार्थ - परम प्रकर्षको प्राप्त चारित्र ही मोक्षका साक्षात् कारण होता है । सामाकि उसीका अंश है । सामायिक में आत्मध्यानका अभ्यास किया जाता है यह अभ्यास ही स्थिर होते-होते शुक्लध्यानका रूप लेता है और अन्तिम शुक्लध्यानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । इसलिए श्रावकको प्रातः और सायं दो बार सामायिक अवश्य करना चाहिए । यदि शक्ति हो तो मध्याह्न में या अन्य समय भी कर सकते हैं। नियमित समयसे अन्य समयमें भी
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