________________
२३८
धर्मामृत ( सागार ) अनुपवासः सजलोपवासः । आचाम्लं-असंस्कृतसौवीरमिश्रीदनभोजनम । निर्विकृति-विक्रियेते जिह्वामनसि अनयेति । विकृतिः गोरसेक्षुरसफलरसधान्यरसभेदाच्चतुर्धा । तत्र गोरसः क्षीरघृतादिः । इक्षुरसः खण्डगुडादिः । फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दो। धान्यरसः तैलमण्डादिः । अथवा यद्येन सह भुज्यमानं स्वदते तत्तत्र विकृतिरित्युच्यते। विकृतनिष्क्रान्तं भोजनं निविकृतिः। आदिशब्देन एकस्थानकभक्तरसत्यागादिः । उक्तं च
'जह उक्कस्सं तह मज्झिमं पि पोसहविहाणमुद्दिट् । णवरि विसेसो सलिलं छंडित्ता वज्जए सेसं ॥ मुणिदूण गुरुगकज्जं सावज्जविवज्जियं निरारंभं । जदि कुणदि तं पि कुज्जा सेसं पुव्वं व णायव्वं ।। आयंविलणिग्विदियएयटाणं च एयभत्तं वा। जं कीरदि तण्णेयं जहण्णयं पोसहविहाणं ॥ [ वसु. था. २९०-२९२ ] ॥३५॥
विशेषार्थ-प्रोषधोपवासके ये उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भेद उत्तरकालीन श्रावकाचारोंमें ही मिलते हैं। अमितंगति और वसुनन्दीने अपने श्रावकाचारोंमें इन तीन भेदोंका कथन किया है। तदनुसार ही आशाधरजीने कहा है। आचार्य अमितगतिने तो चार मुक्तियोंके त्यागको उत्कृष्ट, तीन भुक्तियों के त्यागको मध्यम और दो भुक्तियोंके त्यागको अधम कहा है । अर्थात् उत्कृष्ट प्रोषध तो वही है जिसे ऊपर कहा है और मध्यम प्रोषध वह है जिसे आशाधरजी अनुपवास कहते हैं। उत्कृष्ट प्रोषधसे इसमें इतना ही अन्तर है कि उपवास के दिन केवल जल ग्रहण किया जाता है। शेष चारों प्रकारके आहारका त्याग रहता है । और अधम उपवास वह कहा जाता है जिसमें उपवाससे पहले दिन और दूसरे दिन दोनों बार भोजन ग्रहण किया जाता है किन्तु उपवासके दिन कुछ भी ग्रहण नहीं किया जाता। वसुनन्दीके अनुसार भी उत्कृष्ट और मध्यम प्रोषध तो उक्त प्रकार ही हैं। किन्तु उपवासके दिन आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान और एकभक्त करनेको जघन्य प्रोषध कहा है। आशाधरजीने भी जघन्य प्रोषधका स्वरूप वसुनन्दीके अनुसार ही कहा है। इमलीके रसके माथ भातके भोजनको आचाम्ल कहते हैं। जिससे जिह्वा और मन विकारयुक्त हों ऐसे भोजनको विकृति कहते हैं । गोरस, इक्षुरस, फलरस और धान्यरसके भेदसे विकृतिके चार भेद हैं। दूध, घी आदिको गोरस कहते हैं। खाँड़, गुड़ आदिको इक्षुरस कहते हैं। दाख, आम आदिके रसको फलरस कहते हैं। तेल, माँड़ आदिको धान्य रस कहते हैं । अथवा जिसके साथ खानेसे स्वादिष्ट लगे वह विकृति है। विकारसे रहित भोजनको निर्विकृति कहते हैं । आदि शब्दसे एकस्थान, एकभक्त, रसत्याग आदिका ग्रहण होता है । एकस्थानका अर्थ दिगम्बर साहित्यमें देखने में नहीं आया। श्वेताम्बर साहित्यके अनुसार इस प्रकार है-जिस आसनसे भोजनको बैठे उससे दाहिने हाथ और मुँहके सिवाय किसी भी अंगको चलायमान न करे। यहाँ तक कि किसी अंगमें खुजलाहट होनेपर भी दूसरे हाथको उसे
१. 'वर्तमानो मतस्त्रेधा स वर्यो मध्यमोऽधमः । कर्तव्यः कर्मनाशाय निजशक्त्यनिगहकैः ॥
चतुर्णा तत्र मुक्तीनां त्यागे वर्यश्चतुर्विधः । उपवासः सपानीयस्त्रिविधो मव्यमो मतः ॥ भुक्तिद्वयपरित्यागे विविधो गदितोऽधमः । उपवासस्त्रिधाऽप्येषः शक्तित्रितयसूचकः' ।
-अमि. श्रा. १२।१२२-१२४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org