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द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय )
१३१ अथ जलगालनव्रतातिचारनिवृत्त्यर्थमाह
मुहूर्तयुग्मोध्वंमगालनं वा दुर्वाससा गालनमम्बुनो वा।
अन्यत्र वा गालितशेषितस्य न्यासो निपानेऽस्य न तव्रतेऽय॑ः ॥१६॥ मुहूर्तयुग्मोवं-घटिकाचतुष्टयादुपरि । दुर्वाससा-अल्पसछिद्रजर्जरादिवस्त्रेण । अन्यत्र-स्वाधारजलाशयात् । तद्वते-गालितजलपाननिष्ठायां अच्यों न, निन्द्य इत्यर्थः । अथ
'पंचुंबर सहियाई सत्तवि वसणाई जो विवज्जेइ।
सम्मत्तविसुद्धमई सो सणसावओ भणिओ ॥' [वसु. श्रा. ५७] ॥१६॥ इति वसुनन्दिसैद्धान्तमतेन दर्शनिकस्य द्यतादिव्यसननिवृत्तिमुपदेष्टुं तेषामिहामुत्र चापायावद्यप्रायत्वमुदाहरणद्वारेण व्याहरन्नाह
'द्यूताद्धर्मतुजो बकस्य पिशितान्मद्याद्यदूनां विपच्चारोः कामुकया शिवस्य चुरया यद्ब्रह्मदत्तस्य च ।
aaa...... किसी एक अन्न आदिका त्याग करना चाहिए । जब मांसके दोषसे बासी भोजन ही अभक्ष्य कहा है तब आसव, अरिष्ट, अचार वगैरहकी तो बात ही क्या है। जिसका रूप, गन्ध, रस और स्पर्श बिगड़ गया है उसे नहीं खाना चाहिए क्योंकि उसमें अवश्य त्रसजीव उत्पन्न हो गये हैं। इसी तरह दही, मठा, रस, वगैरह मर्यादामें ही भक्ष्य है। उसके बाद अभक्ष्य है । यह सब कथन लाटी संहितामें किया है ॥१५॥
आगे जलगालन व्रतके अतिचारोंको दूर करने के लिए कहते हैं___एक बार छाने हुए जलको दो मुहूर्त के बादमें न छानना, अथवा छोटे और छिद्र सहित जीर्ण वस्त्रसे पानीका छानना, अथवा छानने के बाद बचे हुए जलको जिस जलाशयका वह जल है उसीमें न डालकर अन्य जलाशयमें डालना, जलगालन व्रतमें निन्दनीय माना गया है ।।१६।
विशेषार्थ-जलको मोटे स्वच्छ वस्त्रसे छानकर ही काममें लेना चाहिए। छने हुए जलकी मर्यादा भी दो मुहूर्त है। दो मुहूर्त के बाद छने जलको पुनः छानना चाहिए । और बिलछानीको उसी जलाशयमें डालना चाहिए जिससे जल लिया हो; क्योंकि एक जलाशयके जीव दूसरे जलाशयमें जाकर मर जाते हैं। पानीमें जीव तो आज खुर्दबीनसे देखे जाते हैं ॥१६॥
आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तीके मतसे जो विशुद्ध सम्यग्दृष्टि पाँच उदुम्बर फलोंके साथ सात व्यसनोंको छोड़ता है वह दर्शनिक श्रावक कहा जाता है। अतः दर्शनिकको जुआ आदि सात व्यसनोंके त्यागका उपदेश करने के लिए व्यसनोंको इस लोक और परलोकमें उदाहरणके द्वारा विनाशकारी और निन्दनीय ठहराते हैं
यतः जुआ खेलनेसे युधिष्ठिरको, मांसभक्षणसे बक राजाको, मद्यपानसे यादवोंको, १. 'द्यूताद्धर्मसुतः पलादिह वको मद्याद्यदोर्नन्दनाः,
चारुः कामुकया मुगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नृपः । चौर्यत्वाच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाशास्यो हठात् एकैकव्यसनाहता इति जनाः सर्वन को नश्यति ॥-पद्म. पंच. १३१॥
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