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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय )
१९१ समरसरसरङ्गोद्गम-समसमायोगम् । यन्नीति:-'स्त्रीपुंसयोर्न समसमायोगात्परं वशीकरणमस्ति ।' [ नीतिवा. २५।१०२] उक्तं च
बहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वन्नरः संकल्पजन्मवान् ।
भावाप्तावेव निर्वाति क्लेशस्तत्राधिकः परम् ॥' [ सो. उपा. ४११ ] ॥५४॥ अथ स्वदाररतस्यापि भावतो द्रव्यतश्च हिंसासंभवं नियमयति
स्त्रियं भजन भजत्येव रागद्वेषौ हिनस्ति च । 'योनिजन्तून बहून् सूक्ष्मान् हिंस्रः स्वस्त्रीरतोऽप्यतः ॥५५॥ 'हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।।
बहवो जीवा योनी हिस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥' [ पुरुषार्थ. १०८ ] कि च, ये कामप्रधानास्तैरपि योनी जन्तुसद्भावा............
'रक्तजाः कृमयः सूक्ष्मा मृदुमध्याधिशक्तयः ।
जन्मवमंसु कण्डूति जनयन्ति तथाविधाम् ॥' [ वा. कामस् . ] ॥५५॥ अथ ब्रह्मचर्यमहिमानमभिष्टौति
स्वस्त्रीमात्रेण सन्तुष्टो नेच्छेद्योऽन्याः स्त्रियः सदा ।
सोऽप्यद्भुतप्रभावः स्यात् कि वयं वणिनः पुनः ॥५६।। विशेषार्थ-समरस ही सर्वत्र सुखकी अनुभूतिका कारण है। यदि मनमें शान्ति नहीं है तो विषय भोगमें भी सुखकी अनुभूति नहीं होती । परायी स्त्रीके पास जानेवालेका मन इस बातसे व्याकुल रहता है कि अपना या उस स्त्रीका कोई आदमी देख न ले । परस्त्रीगामियोंकी हत्याके समाचार प्रायः छपा करते हैं। ऐसे परस्त्री गमनमें सुखकी अनुभूति कैसे हो सकती है । कहा है-अनेक प्रकारकी बाह्य क्रियाओंका करनेवाला कामी पुरुष रति सुख मिलने पर ही सुखी होता है किन्तु उसमें क्लेश अधिक ही है ॥५४॥
आगे स्वस्त्रीगमनमें भी द्रव्य हिंसा और भावहिंसा बतलाते हैं
क्योंकि खीको सेवन करनेवाला पुरुष राग-द्वेष अवश्य ही करता है। तथा स्त्रीकी योनिमें रहनेवाले बहुतसे सूक्ष्म जीवोंका घात करता है अतः स्वस्त्रीमें मैथुन करनेवाला भी हिंसक है ।।५५।।
राग-द्वेषकी उत्पत्तिका नाम भावहिंसा है और किसी जीवके प्राणोंके घातको द्रव्यहिंसा कहते हैं । जो आदमी अपनी स्त्रीमें मैथुन करता है उसे उस समय रागकी बहुलता तो रहती ही है, किन्तु यदि बात उसकी इच्छाके प्रतिकूल होती है तो तत्काल क्रोधादि भाव पैदा होता है अतः भावहिंसा है । कामशास्त्रके पण्डित वात्स्यायनने भी कहा है कि स्त्रीको योनिमें सूक्ष्म जन्तु रहते हैं जो योनिमें खाज पैदा करते हैं। रमणके समय उनका घात होता है । अतः स्वस्त्रीगामी भी हिंसक है। किन्तु स्वस्त्रीको अपेक्षा परस्त्रीगामीके राग-द्वेष तीव्र होते हैं ॥५५॥
ब्रह्मचर्यकी महिमा कहते हैं
जो केवल अपनी ही स्त्रीमें सन्तुष्ट रहता है और अन्य स्त्रियोंकी सदा इच्छा नहीं करता, वह भी अद्भुत प्रभाव वाला होता है फिर जो सभी स्त्रियोंका त्याग कर ब्रह्मचर्य व्रत १. 'मैथुनाचरणे मूढ म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंघट्टपीड़िताः।'-ज्ञानार्णव
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