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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) अपि च
'आपद्धतुषु रागरोषनिकृतिप्रायेषु दोषेष्वलं मोहात् सर्वजनस्य चेतसि सदा सत्सु स्वभावादपि । तन्नाशाय च संविदे सफलवत्काव्यं कवेर्जायते,
शृङ्गारादिरसं तु सर्वजगतो मोहाय दुःखाय च ॥' [ तथा
'पापधिजयपराजयसंगरपरदारगमनचौर्याद्याः ।
न कदाचनापि चिन्त्याः पापफेलं कालं ह्यपध्याने ॥ [ पुरुषार्थ. १४१] ॥९॥ अथ प्रमादचर्यालक्षणं तत्त्यागं च श्लोकद्वयेनाह
प्रमादचयों विफलं क्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम् ।
खातव्याघातविध्यापसेकच्छेदादि नाचरेत् ॥१०॥ व्याघातः-स्वयमागच्छतो वा तस्य कपाटादिना प्रतिघातः। विध्यापः-जलादिनाऽग्नेविध्यापनम् । १२ च्छेदादि-आदिशब्देन पत्रपुष्पफलत्रोटनादि । उक्तं च
'भूखनन-वृक्षमोटन-शाद्वलदलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च ॥' [ पुरुषार्थ. १४३ ] ॥१०॥ १५ चाहिए । एक ही विषयमें मनके लगानेको ध्यान कहते हैं। ध्यानके चार भेद हैं। उनमें आतं, रौद्र खोटे ध्यान हैं। आत पीड़ा या कष्ट को कहते हैं, उसके ध्यानको आतध्यान कहते हैं। जैसे धर्म करनेसे स्वर्ग मिलता है और स्वर्गमें अप्सरायें होती हैं यह जानकर उनके भोगउपभोगका चिन्तन करना भी आर्तध्यान है। इसी तरह वैरिघात आदिका चिन्तन करना रौद्रध्यान है। रुद्र कहते हैं निर्दयभावको। उससे जो ध्यान होता है वह रौद्रध्यान है। ये ध्यान भी नहीं करना चाहिए। यदि प्रसंगवश इनका ध्यान हो आवे तो तत्काल उसे दूर कर देना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्रजीने कहा है-'रागादिको बढ़ानेवाली अज्ञानसे भरी खोटी कथाओंका कभी भी श्रवण, धारण, शिक्षण आदि नहीं करना चाहिए। और भी कहा है-'मोहवश सभी मनुष्योंके चित्तमें सदा स्वभावसे ही आपत्तिके कारण राग, द्वेष, छल, कपट आदि दोष रहते हैं। उनके विनाशके लिए कविका काव्य सफल होता है। शृङ्गार आदि रस तो समस्त जगत्को मोह और दुःख उत्पन्न करता है। तथा शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्री गमन, चोरी आदिका चिन्तन कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि उनका फल केवल पापबन्ध है' ॥९॥
प्रमादचर्याका लक्षण और उसका त्याग दो श्लोकोंमें कहते हैं
विना प्रयोजन भूमिका खोदना, वायुको रोकना, अग्निको बुझाना, पानी सींचना. वनस्पतिका छेदन भेदन आदि करना प्रमादचर्या है । उसे नहीं करना चाहिए ॥१०॥
विशेषार्थ-विना प्रयोजन भूमिको नहीं खोदना चाहिए, विना प्रयोजन स्वयं आती हई वायको द्वार वगैरह बन्द करके नहीं रोकना चाहिए। विना प्रयोजन आग नहीं बुझाना चाहिए। विना प्रयोजन पानीको भूमि पर नहीं डालना चाहिए। विना प्रयोजन वनस्पतिका छेदन पत्र, पुष्प, फल आदिको तोड़ना नहीं चाहिए । यही बात अमृतचन्द्रजीने
१. फलं केवलं यस्मात्-पुरुषा. ।
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