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चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय )
२०९ अथ पापोपदेशस्वरूपं तद्विरति चाह
पापोपदेशो यद्वाक्यं हिंसाकृष्यादिसंश्चयम् ।
तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठयां प्रसञ्जयेत् ॥७॥ हिंसेत्यादि । हिंसामषावादादिभिः कृषिवाणिज्यादिभिश्च संश्रयः संबन्धो यस्य तत्तद्विषयमित्यर्थः। तज्जीविभ्यः व्याधवञ्चकचौरादिभ्यः कृषिबलकिरातादिभ्यश्च न तं दद्यात, मगास्तोयाशयमायाताः किमपविष्टास्तिष्ठतेत्यादिरूपेण न प्रसञ्जयेत् पुन पुनः प्रवर्तयेत् । उक्तं च
'विद्यावाणिज्यमषिकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव कर्तव्यम् ॥' [पुरुषार्थ. १४२ ] ॥७॥ अथ हिंसोपकरणदानपरिहारमाह
हिंसादानं विषास्त्रादिहिंसाङ्गस्पर्शनं त्यजेत् ।
पाकाद्यर्थच नाग्न्यादि दाक्षिण्याविषयेऽपयेत् ॥८॥ कष्ट देना अनर्थदण्ड है। उसके पाँच भेद हैं-पापोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या। आचार्य समन्तभद्रने भी ऐसा ही कहा है ॥६॥
पापोपदेशका स्वरूप और उसके त्यागको कहते हैं
जो वचन हिंसा, झूठ आदि और खेती व्यापार आदिसे सम्बन्ध रखता है उसे पापोपदेश कहते हैं । जो इनसे आजीविका करनेवाले व्याध, ठग, चोर, किसान, भील आदि हैं उन्हें पापोपदेश नहीं देना चाहिए और न गोष्ठी में इस तरह की चर्चाका प्रसंग लाना चाहिए ॥७॥
विशेषार्थ-पशु-पक्षियोंको कष्ट पहुँचानेवाला व्यापार, हिंसा, आरम्भ, ठगी आदिकी चर्चा करना, वह भी उन लोगोंमें जो यही काम करते हों, पापोपदेश है । उसे नहीं करना चाहिए। आचार्य अमृतचन्द्रजीने तो विद्या, वाणिज्य, लेखनी, कृषि, सेवा और शिल्पसे आजीविका करनेवालोंको भी पापोपदेश देनेका निषेध किया है। इसमें षट्कर्मोंसे आजीविका करनेवाले सभी आ जाते हैं। अतः किसी भी प्रकारकी आजीविकाका उपदेश अमृतचन्द्रजीके मतसे पापोपदेश है। अनर्थदण्डके त्यागीको यह नहीं करना चाहिए। लाटी संहितामें अनर्थ-दण्डविरतिको श्रावकके बारह व्रतरूपी वृक्षोंका मूल कहा है। और कहा है-एक अनर्थदण्डके त्यागसे प्राणी बिना किसी प्रयत्नके व्रती हो जाता है और उसके बिना करोंड़ों प्रयत्न करने पर भी व्रतो नहीं होता। उसका यह कथन यथार्थ है। यदि मनुष्य बिना प्रयोजन पाप कार्यों में प्रवृत्ति न करे तो उसे रुपयेमें बारह आना पाप कार्योंसे छुटकारा मिल सकता है ॥७॥
हिंसाके उपकरण देनेका निषेध करते हैं
अनर्थदण्ड व्रतका पालक श्रावक प्राणिवधके साधन विष, अस्त्र आदिके देने रूप हिंसादान नामक अनर्थदण्डको छोड़े। और पारस्परिक व्यवहारके सिवाय किसी दूसरेको पकाने आदिके लिए अग्नि वगैरह न देवे ॥८॥
१. 'व्रतं चानर्थदण्डस्य विरतिहमेधिनाम् । द्वादशव्रतवृक्षाणामेतन्मूलमिवाद्वयम् ॥
एकस्यानर्थदण्डस्य परित्यागो न (ोन) देहिनाम् । प्रतित्वं स्यादनायासान्नान्यथायास कोटिभिः ॥-ला. सं. ६।१३५-१३६ ।
सा.-२७
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