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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
दिव्रतेत्यादि । दिव्रतेनोद्रिक्तमुत्कर्षं नीतं वृत्तघ्नकषायाणां - प्रत्याख्यानावरणद्रव्यक्रोधादीनामुदयस्य विपाकस्य मान्द्यमनोत्कट्यं तस्मात् दिग्विरतिमन्दतरीकृत प्रत्याख्यानावरणविपाकादित्यर्थः । अलक्ष्यमोहेनिश्चेतुमशक्यभावप्रत्याख्यानावरणपरिणामे गृहिणि अणुव्रतं महाव्रता[यते महाव्रतमिवाचरति नियमितदिग्विभा] गाद् बहिः सर्वसावद्य निवर्तकत्वात् न तु महाव्रतं भवति तत्प्रतिबन्धकोदयसद्भावात् । तदुक्तम्
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'प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्पन्ते || पञ्चानां पापानां हिंसादीनां मनोवचः कायैः । कृतकारितानुमननैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥'
अथ दिग्विरत्यतिचारमाह
'सीम विस्मृतिरूर्ध्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमाः । अज्ञानतः प्रमादाद्वा क्षेत्रवृद्धिश्च तन्मलाः ॥५॥
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रत्न. श्रा. ७१-७२ ] ॥४॥
विशेषार्थ -- भावकर्म और द्रव्यकर्म में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है । द्रव्यकर्मका उदय भावकर्मके उदयमें निमित्त पड़ता है और भावकर्मके उदयका निमित्त पाकर द्रव्यकर्म बन्धता है | प्रत्याख्यानावरण कषाय महाव्रतकी घातक है उसके उदय में महाव्रत नहीं होता । श्रावक के इस कषायका जबतक उदय है तबतक उसके महाव्रतरूप परिणाम नहीं हो सकते । ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होता है कि श्रावकके अणुव्रत महाव्रत कैसे हो सकते हैं । उसीके समाधानके लिए यह कथन है कि दिग्व्रत धारण करनेसे प्रत्याख्यानावरण नामक द्रव्य क्रोधादिका उदय बहुत मन्द हो जाता है और उससे उस श्रावक के प्रत्याख्यानावरण नामक चारित्रमोहरूप परिणाम भी इतने क्षीण हो जाते हैं कि उसके अस्तित्वका भी निर्णय करना कठिन होता है । फलतः मर्यादाके बाहर सर्व पापसे विरत होनेसे अणुव्रत उस क्षेत्रकी अपेक्षा महाव्रत होते हैं । स्वामी समन्तभद्रने ऐसा ही कहा है । यथा— प्रत्याख्यानावरण कषायके मन्द उदयके कारण चारित्रमोह रूप परिणाम मन्दतर होनेसे उनका अस्तित्व भी कठिनता से ही प्रतीत होता है । इसीसे अणुव्रत महाव्रतके तुल्य प्रतीत होते हैं ||४||
दिव्रत के अतिचार कहते हैं
अज्ञान या प्रमाद से सीमाका भूल जाना, ऊपर-नीचे और तिर्यक् प्रदेशकी मर्यादाका व्यतिक्रम तथा क्षेत्रवृद्धि ये पाँच दिग्वतके अतीचार हैं ||५||
विशेषार्थ - जो मर्यादा निर्धारित की थी, बुद्धिकी मन्दतासे या सन्देह होनेसे अथवा किसी प्रकारकी व्याकुलता होनेसे या चित्त दूसरी ओर होनेसे भूल जाना सीमविस्मृति है । जैसे, किसीने पूरब दिशामें सौ योजनका परिमाण किया था । गमन करते समय स्पष्ट रूप से स्मरण नहीं रहा कि सौ योजनका परिमाण किया था या पचासका । ऐसी स्थिति में यदि वह
१. 'ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्र वृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि' - त. सू. ७।३० ।
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सीमविस्मृतिः - नियमितमर्यादाया अज्ञानतो मत्यपाटवसन्देहादिना प्रमादाद्वातिश्याकुलत्वान्यमनस्कत्वादिना स्मृतिभ्रंशः । तथाहि — केनचित् पूर्वस्यां दिशि योजनशतरूपं परिमाणं कृतमासीत् । गमनकाले च स्पष्टतया न स्मरति किं शतपरिमाणं कृतमुत पञ्चाशत् । तस्य चैवं पञ्चाशतमतिक्रामतोऽतिचारः शतमति - १५ क्रामतो भङ्गः सापेक्षत्वान्निरपेक्षत्वाच्चेति प्रथमोऽतिचारः । ऊर्ध्वेत्यादि । ऊर्ध्वं गिरितरुशिखरादेः, अधो ग्राम
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