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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
'द्विदलं द्विदलं प्राश्यं प्रायेणानवतां गतम् ।
शिम्बयः सकलास्त्याज्याः साधिताः सकलाश्च याः ॥' [ सो. उपा. ३३० ] अदलितं - अकृतद्विधाभावं द्विदलम् । प्रावृषि हि मुद्गादीनामन्तः प्ररोहस्यायुर्वेदप्रसिद्धत्वात् त्रससंमूर्छनस्य च दृष्टत्वेन संभाव्यमानत्वादभोज्यत्वम् । एतेन विरूढानामपि तेषां निषेध उक्तः स्यात् । अत्र वर्षासु सस्यावर संसक्तबहुलत्वात्पत्रशाकस्य ॥ १८ ॥
अथैतद्व्रतस्य विशेषादानृशंस्यसिद्ध्यङ्गत्वमुपदिशति -- भोगोपभोगकृशनात्कृशीकृतधनस्पृहः
।
घनाय कोट्टपालादिक्रियाः क्रूराः करोति कः ॥१९॥
विशेषार्थं - कच्चे दूध, कच्चे दूधसे जमे दही तथा उससे बने मठेमें मिले द्विदलको अभक्ष्य कहा है, क्योंकि आगम में उसमें बहुत सूक्ष्म जीवोंकी उत्पत्ति कही है । लोकव्यवहारमें दूध कच्चा हो या पकाया हो उसमें और उससे बने दही आदि में मिलाये द्विदलको नहीं खाया जाता । यहाँ केवल कच्चे दूध और उससे बने दही आदि में मिले द्विदलको त्याज्य कहा है अर्थात् पकाये दूध और उससे बने दही आदि में मिले द्विदलको त्याज्य नहीं कहा । किन्तु पं. आशाधरजीसे पूर्व के किसी दिगम्बराचार्य प्रणीत शास्त्र में द्विदलके सम्बन्ध में कोई कथन हमारे देखनेमें नहीं आया । हाँ, श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रके योगेशास्त्र में यह कथन अवश्य है और सम्भवतः आशाधरजीने वहींसे इसे लिया है क्योंकि उनके सागारधर्मामृतपर योगशास्त्रका भी प्रभाव है । अस्तु, इसी तरह प्राय: पुराना द्विदल भी नहीं खाना चाहिए | सोमदेव सूरिने भी पुराने द्विदलका ही त्याग कराया है । यहाँ प्रायः इसलिए कहा है कि चिरकाल होनेसे काले हो गये कुलथे आदिमें यदि सम्मूर्छन जन्तु दृष्टिगोचर न हों तो उसके खानेका निषेध नहीं है ऐसा पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें लिखा है । वर्षाऋतु में मँग आदिके अन्दर अंकुर पैदा हो जाता है ऐसा आयुर्वेद में प्रसिद्ध है । तथा सम्मूर्छन त्रस - जीवोंकी भी सम्भावना रहती है : अतः वर्षाऋतु में द्विदलको बिना दले नहीं खाना चाहिए । तथा वर्षाऋतु में पत्ते के शाक में त्रस और स्थावर जीवोंका संसर्ग विशेष हो जाता है इसलिए उसे भी नहीं खाना चाहिए। हरे फलादिरूप शाकके खानेका निषेध नहीं है । किन्तु लौटी संहितामें तो सभी शाक पत्रोंको सदा न खानेका विधान किया है । लिखा है कि 'उनमें अवश्य ही सूक्ष्म त्रस जीव रहते हैं । जिनमें से कुछ दृष्टिगोचर भी होते हैं । वे उस शाकपत्रके आश्रयको कभी नहीं छोड़ते । इसलिए आत्महितैषी धर्मार्थी पुरुषको और सम्यग्दर्शनसे युक्त प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकको पानसे लेकर सब पत्तेवाले शाक नहीं खाने चाहिए || १८॥ आगे कहते हैं कि इस व्रत के पालनसे क्रूर कर्मोंका भी त्याग हो जाता है-.
विवेक पूर्वक भोगोपभोगको कम करनेसे जिसकी धनकी लालसा कम हो गयी है। ऐसा कौन पुरुष धनके लिए कोतवाल आदिकी क्रूर आजीविका करेगा अर्थात् कोई नहीं करेगा ||१९||
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१. 'आमगोरससंपृक्तं द्विदलं पुष्पितोदनम् । दध्यहद्वितयातीतं कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥ - योगशास्त्र ३|७| २. 'शाकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन । श्राव कम सदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नतः ।
तत्रावश्यं त्रसाः सूक्ष्माः केचित्स्युर्दृष्टिगोचराः । न त्यजन्ति कदाचित्तं शाकपत्राश्रयं मनाक् ॥ तस्माद्धर्मार्थना नूनमात्मनो हितमिच्छता । आताम्बूलं दलं त्याज्यं श्रावकैर्दर्शनान्वितैः ॥'
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— लाटी सं. २।३५-३७ ।
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