Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 229
________________ १९४ धर्मामृत ( सागार ) ३ व्याख्यानादिति द्वि- ]तीयोऽतिचारः । विटत्वं - भण्डिमा तत्प्रधानकायवाक्प्रयोगः । स्मरतीव्राभिनिवेश:कामेऽतिमात्रमाग्रहः परित्यक्तान्यव्यापारस्य तद्व्यवसायितेत्यर्थः । यथा [ मुखक- ] क्षोपस्थान्तरेष्ववितृप्ततया लिङ्गं प्रक्षिप्य महतीं वेलां निश्चलो मृत इवास्ते । चटक इव चटकां मुहुर्मुहुः स्त्रियमारोहति । जातबलक्षयश्च वाजिकरणान्युपयुङ्क्ते अनेन खल्वोषधादिप्रयोगेण गजप्रसेकी तुरगावमर्दी च पुरुषो भवतीति बुद्धया इति चतुर्थः ॥ ४ ॥ अनङ्गक्रीडा – अङ्गं साधनं देहावयवो वा । तच्चेह मैथुनापेक्षया योनिर्मेहनम् । ६ ततोऽन्यत्र मुखादिप्रदेशे रतिः । यतश्च चर्मादिमयैलिङ्गः स्वलिङ्गेन कृतार्थोऽपि स्त्रीणामवाच्यदेशं पुनः पुनः कुद्राति केशाकर्षणादिवा वा क्रीडन् प्रबलरागमुत्पादयति । साप्यनङ्गक्रीडोच्यते । इह च श्रावकोऽत्यन्तपापभीरुतया ब्रह्मचर्यं चिकीर्षुरपि यदा वेदोदयासहिष्णुतया तत्कर्तुं न शक्नोति तदा यापनामात्रार्थं स्वदार९ सन्तोषादि प्रतिपद्यते । मैथुनमात्रेणैव यापनायां संभवत्यां विटत्वादित्रयमर्थतः प्रतिषिद्धमेव । तत्प्रयोगे हि न कश्चिद् गुणः प्रत्युत सद्योऽतिरागोद्दोपनं बलक्षयस्तात्कालिकीच्छिदा राजयक्ष्मादिरोगाः स्युः । तदुक्तम्'ऐदंपर्यंतो मुक्त्वा भोगानाहारवद् भजेत् । देहदाहोपशान्त्यर्थमभिध्यानविहानये ॥' [ सो. उपा. ४१७ ] १२ मैथुन न करूँगा न कराऊँगा,' ऐसा व्रत लेता है तब मैथुनका कारण जो अन्यविवाहकरण है उसका प्रतिषेध हो ही जाता है । किन्तु वह ऐसा समझता है कि मैं तो मात्र विवाह करा रहा हूँ, मैथुन तो नहीं कराता हूँ । इस प्रकार व्रतकी सापेक्षता होनेसे अतिचार है । कन्यादान के फलकी आकांक्षा सम्यग्दृष्टिको भी अव्युत्पन्न अवस्था में होती है । मिध्यादृष्टि भी जब भद्र अवस्था में व्रत धारण करता है तब कन्यादान के फलकी इच्छा रहती है । शंका - परविवाह करणकी तरह अपनी सन्तानका विवाह करने में भी तो उक्त दोष लगता है ? समाधान -- यह तो ठीक है किन्तु गृहस्थ यदि अपनी कन्याका विवाह न करे तो वह स्वच्छन्दचारिणी हो जाये । और तब कुल, लोक और आगमका विरोध उपस्थित हो । किन्तु विवाह हो जानेपर एक नियत पति के होनेसे वैसा होना सम्भव नहीं है । यही बात पुत्रके सम्बन्धमें भी जानना । किन्तु यदि कुटुम्बकी चिन्ता करनेवाला कोई भाई वगैरह हो तो अपनी सन्तानका भी विवाह न करनेका नियम लेना ही श्रेष्ठ है । जब स्वदारसन्तोषी विशेष सन्तोष न होनेसे अपना दूसरा विवाह करता है तब भी यह अतिचार लगता है । 'पर' अर्थात् अन्य स्त्रीके साथ विवाहकरण अर्थात् अपना विवाह करना, यह परविवाहकरणकी व्याख्या करना चाहिए । ३. वित्व भण्डपनको कहते हैं । भण्ड वचन बोलना तीसरा अतिचार है । ४. कामसेवनकी अत्यधिक लालसाको स्मरतीव्राभिनिवेश कहते हैं । अर्थात् अन्य सब काम छोड़कर उसीमें आसक्त रहना चतुर्थ अतीचार है । जैसे मुख, काँख और योनिमें लिंगको स्थापित करके बहुत समय तक मुर्दे की तरह निश्चल पड़े रहना । या जैसे चिड़ा चिड़ियापर बार-बार चढ़ता है उस तरह बार-बार स्त्रीभोग करना, और शक्ति क्षीण होनेपर बाजीकरणका प्रयोग करना कि अमुक औषधिके सेवन से पुरुष घोड़े या हाथीकी तरह समर्थ होता है । ये सब कामसेवनकी तीव्र अभिलाषा के सूचक हैं । ५. पाँचवाँ अतिचार अनंगक्रीड़ा है । अंग साधनको या शरीर के अवयवको कहते हैं । यहाँ मैथुनकी अपेक्षा योनि और लिंग अंग हैं । उससे अन्यत्र मुख आदि में रति करना अनंगक्रीड़ा है। या अपने लिंगसे कामसेवन करने - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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