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अथ बहिरङ्गसङ्गत्यागविधिमाह -
'बहिरङ्गादपि सङ्गाद्यस्मात्प्रभवत्य संयमोऽनुचितः ।
परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥' [ पुरुषार्थ. १२७ ] कृशयेत् — स्वल्पयेत् । उक्तं च-
'योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः । सोऽपि तनूकरणीय निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ||' [ पुरुषा. १२८ ] शनैः - मनाक् मनाक् । परिग्रहसंज्ञाया अनादिसंतत्या प्रवर्तमानत्वात् सहसा तत्त्यागस्य कर्तुमशक्य१२ त्वात्कृतस्यापि तद्वासनावशाद्भङ्गसम्भावना चैतदुच्यते ॥ ६१ ॥
एतदेव प्रपञ्चयन्नाह -
धर्मामृत (सागर)
अयोग्यासंयमस्याङ्ग सङ्गं बाह्यमपि त्यजेत् ।
मूर्छाङ्गत्वादपि त्यक्तुमशक्यं कृशयेच्छनैः ॥ ६१॥
अयोग्यः - :- श्रावकस्य कर्तुमनुचितोऽसंयमः । स चेहानारम्भजस्त्रसवधो व्यर्थः स्थावरवधः परदार
गमनादिश्च । तदुक्तम्—
देशसमयात्मजात्याद्यपेक्षयेच्छां नियम्य परिमायात् ।
वास्त्वादिकमामरणात्परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत् ॥ ६२॥ जात्यादि । आदिशब्देन स्वान्वयवयः..
.॥६२॥
आगे बहिरंग परिग्रहको त्यागने की विधि बतलाते हैं
मूर्च्छाका कारण होनेसे बाह्य परिग्रह श्रावकों के न करने योग्य असंयमका कारण होती है । इसलिए पंचम अणुव्रतीको उसे भी छोड़ना चाहिए। और जिस परिग्रहको छोड़ने में असमर्थ है उसे धीरे-धीरे घटाना चाहिए ||६१ ||
विशेषार्थ — बाह्य परिग्रह दस हैं । वे सब मोहके उदय में निमित्त हैं । इसलिए श्रावकके लिए न करने योग्य असंयमका कारण है । संकल्पी त्रसहिंसा, व्यर्थ स्थावर हिंसा, परस्त्रीगमन आदि असंयम श्रावकके करने योग्य नहीं हैं । परिग्रहकी बहुलतामें ये सब होता है इसलिए बाह्य परिग्रह भी छोड़ना चाहिए। किन्तु परिग्रह संज्ञा तो अनादिकालसे चली आ रही है, उसका त्याग सहसा नहीं किया जा सकता। और कर भी दिया जाये तो परिग्रह संज्ञाकी अनादि वासनाके वश त्यागका भंग होनेकी सम्भावना रहती है । इसलिए कहते हैं कि परिग्रहका छोड़ना शक्य न हो तो धीरे-धीरे कम करना ही उचित है। अमृतचन्द्राचार्य कहा है- 'बाह्य परिग्रह से भी अनुचित असंयम होता है इसलिए समस्त सचित्त और अचित्त परिग्रह छोड़ना चाहिए । जो धन, धान्य, मनुष्य, मकान, धन आदि छोड़ने में अशक्य है उसे भी कम करना चाहिए, क्योंकि तत्त्व तो निवृत्तिरूप है' || ६१ ॥
उसी कम करने की विधिको बतलाते हैं—
श्रावक देश, काल, आत्मा स्वयं, और जाति आदि की अपेक्षा परिग्रह - विषयक तृष्णाको सन्तोषकी भावनाके द्वारा रोककर मकान, खेत, धन, धान्य, दासी दास, पशु, शय्या, आसन, सवारी और भाण्ड इन दस प्रकारकी परिग्रहोंका जीवनपर्यन्तके लिए परिमाण करे । तथा किये हुए परिमाणवाली परिग्रहको भी निष्परिग्रहत्वकी भावनासे उत्पन्न हुई अपनी शक्ति के अनुसार पुनः कम करे ||६२ ||
विशेषार्थ -- परिग्रहका परिमाण करते समय श्रावकको अपने परिवार, उसके रहन
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