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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय )
२०३ अथैवं निरतिचाराणुव्रतपरिणत्यनुपालनाय निर्मलशीलपालनायामुपासकमुत्थापयितुं तदनुभावमाहपञ्चाप्येवमणुव्रतानि समतापीयूषपानोन्मुखे
सामान्येतरभावनाभिरमलीकृत्यापितान्यात्मनि । त्रातं निर्मलशोलसप्तकमिदं ये पालयन्त्यादरात्
ते संन्यासविधिप्रमुक्ततनवः सौर्वीः श्रियो भुञ्जते ॥६६॥ पश्चापि-अपिशब्दादेकं द्वे त्रीणि चत्वारि वा। सामान्यभावनाः मैत्र्यादयः। इतरभावनाः प्रतिव्रतं ६ पञ्चशो नियमिताः । अमलीकृत्य, उद्योतनोक्तिरियम् । अपितानि-उद्यवनप्रकाशनेयम् । त्रातुं–निर्वहणार्थमिदम् । इदं-उत्तरत्र वक्ष्यमाणम् । उक्तं च
'परिधय इव नगराणि व्रतानि परिपालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥' [पुरुषार्थ. १३६ ] संन्यासेत्यादि-सति साधने निस्तरणभणितिरियम् । सौर्वी:-स्व स्वर्गे भवा इति भद्रम् ।
इत्याशाधरदब्धायां धर्मामृतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां त्रयोदशोऽध्यायः ।
हूँ। मेरे लिए परवस्तु तुच्छ है। अतः मैं राज्य और रानीको स्वीकार नहीं कर सकता।' इसपर-से उस देवने उनपर घोर उपसर्ग किया। किन्तु जयकुमार विचलित नहीं हुए । तब देव उनके चरणों में विनत हुआ और उनका बहुत आदर किया ॥६५॥
इस प्रकार श्रावकको निरतिचार अणुव्रतोंका पालन करनेके लिए निर्मल सात शीलोंके पालन करने में उत्साहित करते हुए उनके माहात्म्यको बतलाते हैं
इस प्रकार जो भव्य जीव मैत्री, प्रमोद आदि सामान्य भावनाओंसे और महाव्रतके अधिकारमें कही गयी प्रत्येक व्रतकी विशेष भावनाओंके द्वारा उस व्रतके अतीचारोंको दूर करके समतारूपी अमृतको पीने के लिए तत्पर आत्मामें धारण किये गये पाँचों ही प्रकारके अणुव्रतोंका पालन करने के लिए आगेके अध्यायमें कहे जानेवाले निरतिचार सात शीलोंको आदरपूर्वक पालते हैं वे अन्तिम अध्यायमें कही गयी समाधिमरणकी विधिके द्वारा शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्तकी लक्ष्मीको भोगते हैं ॥६६।।।
विशेषार्थ-व्रत धारणका लक्ष्य है समतारूपी अमृतका पान । जिसे उसको पीनेकी तीव्र उत्कण्ठा है उसे पाँच अणुव्रत अपनाकर भावनाओंके द्वारा निरतिचार बनाना चाहिए और तब उनको पुष्ट करने के लिए सात शील पालना चाहिए। अमृतचन्द्रजीने कहा है-'जैसे कोटसे नगरकी रक्षा होती है वैसे ही शीलोंसे व्रतोंकी रक्षा होती है। अतः शीलोंका भी पालन करना चाहिए। ऐसा करते हुए समाधिपूर्वक मरण करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ॥६६।।
इस प्रकार पं. आशाधररचित धर्मामृतके अन्तर्गत सागारधर्मकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीका तथा ज्ञानदीपिकाकी अनुसारिणी हिन्दी टीकामें आदिसे तेरहवाँ और सागार
धर्मका चौथा अध्याय पूर्ण हुआ।
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