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धर्मामृत ( सागार) अचौर्याणुव्रतातिचारत्वात्तद्वांस्त्यजेत् । सोमदेवपण्डितस्तु मानन्यूनताधिक्ये द्वावतिचारी मन्यमानस्त्विदमाह
'पौतवन्यूनताधिक्ये स्तेन कम ततो ग्रहः ।
विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ॥ [ सो. उपा. ३७० ] ॥५०॥ अथ स्वदारसंतोषाणुव्रतस्वीकारविधिमाह
प्रतिपक्षभावनैव न रती रिरंसारुजि प्रतीकारः।
इत्यप्रत्ययितमनाः श्रयत्वहिंस्रः स्वदारसंतोषम् ॥५१॥ प्रतिपक्षभावना-ब्रह्मचर्यस्य प्रागुक्तविधिना पुनः पुनश्चेतसि निवेशनं, रतिः-स्त्रीसम्भोगः । उक्तं च
'स्त्रीसंभोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति ।
स हुताशं घृताहुत्या विध्यापयितुमिच्छति ॥ [ योगशा. २।८१ ] रिरंसारुजि-योन्यादो रन्तुमिच्छारूपायां वेदनायाम् । अप्रत्ययितमनाः-असंजातविश्वासचित्तः । १२ उक्तं च
'ये निजकलत्रमात्रं परिहतुं शक्नुवन्ति न हि मोहात्।
निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् ॥' [ पुरुषार्थ. ११० [ १५ अहिंस्रः-ईषद्धिहिंसनशीलः ॥५१॥
व्यक्ति यदि चोरी न करनेका नियम लेता है तो उसकी दृष्टिसे इन्हें अतिचारकी श्रेणीमें रखा जा सकता है। प्रायः सभी ग्रन्थकारोंने ये पाँचों अतीचार बतलाये हैं। आचार्य समन्तभद्रने विरुद्धराज्यातिक्रमके स्थानमें विलोप नामक अतीचार रखा है। जिसका अर्थ है राजाज्ञाको न मानना । सोमदेवने अधिक वाट तराजू और कम वाट तराजूको अलग अतिचार गिनाया है। तथा विरुद्ध-राज्यातिक्रमके स्थानमें विग्रह और अर्थ संग्रह नामक अतीचारको स्थान दिया है। अर्थात् युद्धके समय पदार्थोंका संग्रह करना कि मूल्य बढ़नेपर बेचकर धन कमायेंगे। यह बराबर अतिचारकी कोटि में आता है क्योंकि इसमें शुद्ध व्यापारकी भावना है ।।५।।
अब स्वदारसन्तोष नामक अणुव्रतको ग्रहण करनेका उपदेश देते हैं
योनि आदिमें रमण करनेकी इच्छारूप रोगकी शान्तिका उपाय उसके प्रतिपक्षी ब्रह्मचर्यको चित्तमें स्थान देना ही है, स्त्री सम्भोग नहीं। इस प्रकारका विश्वास जिसके चित्तमें उत्पन्न नहीं हुआ है वह अहिंसाणुव्रती स्वदार सन्तोष नामक ब्रह्माणुव्रत स्वीकार करे ॥५१।।
विशेषार्थ-हिंसा करना, झूठ बोलना और चोरी करना तो मनुष्यमें संगतिके असर से आता है। किन्तु कामविकार तो युवावस्था होते ही जाग्रत् हो जाता है। जो जन्मसे ही अच्छी संगतिमें रहते हैं वे भी युवावस्था में इस विकारसे बच नहीं पाते। अच्छे-अच्छे तपस्वियोंको भी इसने भ्रष्ट किया है। इसको जीतनेका उपाय है ब्रह्मचर्यके गुणोंका सतत
र विषय सेवनसे होनेवाली हानियोंकी परी जानकारी। किन्त यह समय सापेक्ष है। अतः गृहस्थको अपनी पत्नी में ही सन्तुष्ट रहनेका व्रत लेना चाहिए। इसीको स्वदार सन्तोष नामक ब्रह्माणुव्रत कहते हैं। कहा है-'जो स्त्रीसम्भोगके द्वारा कामज्वरको रोकना चाहता है वह घीकी आहुतिसे अग्निको शान्त करना चाहता है। अतः जो मोहवश अपनी स्त्रीको छोड़ने में असमर्थ हैं उन्हें भी अपनी स्त्रीके सिवाय शेष सभी स्त्रियोंका सेवन नहीं करना चाहिए ।।५।।
चिन्तन और
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