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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थं अध्याय )
शान्ताद्यष्टकषायस्य संकल्पैर्नवभिस्त्रसान् । अहिंसतो दयार्द्रस्य स्यार्दाहंसेत्येणुव्रतम् ||७||
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संकल्पैरुत्तरसूत्रद्वयनिर्दिष्टै हसाभिसन्धिभिः । नवभिः मनोवाक्कायैः पृथक्करणकारणानुमननैरित्यर्थः । अत्र करणग्रहणं कर्तुः स्वातंत्र्यप्रतिपत्त्यर्थं कारणाश्रयणं परप्रयोगापेक्षं, अनुमननोपादानं प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनार्थम् । तथाहि - मनसा त्रसहिंसां स्वयं न करोमि, त्रसान् हिनस्मीति मनः संकल्पं न करोमीत्यर्थः । तथा मनसा सहिसामन्यं न कारयामि, त्रसान् हिंसय हिंसयेति मनसा अभ्यप्रयोजको न भवामीत्यर्थः । अत्र हिंसयेति हन्त्यर्थाच्चेति हिनस्तेश्चुरादिपाठाणिजन्तस्य रूपम् । तथाऽन्यं त्रसहिंसां कुर्वन्तं मनसा नानुमन्ये सुन्दरमनेन क्रियत इति मनः संकल्पं न करोमि इत्यर्थः । एवं वाचा स्वयं त्रसहिंसा न करोमि, सान् हिनस्मोति स्वयं वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः । तथा वाचा त्रसहिंसां न कारयामि, 'त्रसान् हिंसय हिंसयेति वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः । [ तथाऽन्यं त्रसहिंसां कुर्वन्तं वाचा नानुमन्ये 'साधु क्रियते त्वया' इति वाचं नोच्चारयामीत्यर्थः ] तथा कायेन सहिसां स्वयं न करोमि त्रसहिंसने दृष्टिमुष्टिसन्धाने स्वयं कायव्यापारं न करोमोत्यर्थः । तथा कायेन सहिसां न कारयामि त्रसहिंसने हस्तादिसंज्ञया कायेन परं न प्रेरयामीत्यर्थः । १२ तथा सहिसां कुर्वन्तमन्यं कायेन नानुमन्ये, त्रसहिसने प्रवर्तमानमन्यं नखच्छोटिकादिना नाभिनन्दामीत्यर्थः । यत्स्वामी
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'संकल्पात्कृत कारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् ।
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः ।।' [ रत्न. श्रा. ५३ ] ॥७॥
आदिकी आठ कषायोंके - अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान-मायालोभ के - शान्त होनेपर जो दयालु नौ संकल्पोंसे त्रस जीवोंकी हिंसा नहीं करता, उसके अणुव्रत होता है ॥७॥
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विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें जीवके परिणाम हिंसा आदि से निवृत्त नहीं होते । जब ये दोनों प्रकारकी कषाएँ शान्त रहती हैं अर्थात् इनका क्षयोपशम हो जाता है तब जीव के परिणामोंमें सच्ची दयालुताका भाव आता है और वह मन-वचन-काय और कृत-कारिता - अनुमोदनारूप नौ संकल्पोंके द्वारा दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंके द्रव्य प्राण और भाव प्राणोंका घात न करनेका नियम लेता है । यद्यपि गृहस्थाश्रम में रहनेके कारण प्रयोजनवश उसे कदाचित् स्थावर जीवोंके घात में प्रवृत्ति करनी पड़ती है फिर भी उसका हृदय दयासे भोगा होता है । इसीको अहिंसाणुव्रत कहते हैं । आचार्य समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी अहिंसाणुव्रत का यही लक्षण किया है। नौ संकल्पों को आगे कहेंगे फिर भी यहाँ उन्हें स्पष्ट कर देना अनुचित न होगा । कृत कर्ताकी स्वतन्त्रताका बोध कराता है | कारितका अर्थ है दूसरे से कराना । और अनुमत प्रयोजक के मनके भाव बतलाता है । यथा - मैं स्वयं त्रसहिंसा नहीं करता हूँ अर्थात् 'सोंको मारूँ' इस प्रकारका मनमें संकल्प नहीं करता हूँ | तथा मनसे अन्यसे त्रसहिंसा नहीं कराता हूँ, अर्थात् सोंको मारो मारो, इस प्रकार मनसे अन्यका प्रयोजक नहीं होता हूँ | तथा त्रसहिंसा करनेवाले अन्य व्यक्तिकी मनसे अनुमोदना नहीं करता हूँ, अर्थात् यह सुन्दर कार्य करता है इस प्रकारका मनमें संकल्प नहीं करता हूँ । इसी प्रकार वचनसे स्वयं त्रसहिंसा नहीं करता
१. 'तसघादं जो ण करदि मणवयकायेहि णैव कारयदि ।
कुव्वंतं पिण इच्छदि पढमवयं जायदे तस्स ॥' - कार्तिकेयानु. ३३२ गा. ।
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