________________
१६६
३
धर्मामृत ( सागार) अथ दृष्टादृष्टदोषभूयिष्टमपि रात्रिभोजनमाचरन्तं वक्रमणित्या तिरस्कुर्वन्नाह
जलोदरादिकृड्काद्यङ्कमप्रेक्ष्यजन्तुकम् ।
प्रेतायुच्छिष्टमुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥२५॥ जलोदरादिकृचूकाद्यवं-जलोदरमादिर्येषां कुष्ठादीनामपायानां तत्कृतो यूका आदिर्येषां मर्कटिकादीनां ते तथाविधा अङ्काः-कलङ्का अङ्के वा उत्सङ्गे यस्यान्नपानादेर्भोज्यवस्तुनस्तत्तथोक्तम् । तदुक्तम्
'मेधां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति कष्ठरोगं च कौलिकः ।। कण्टको दारुखण्डश्च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तनिपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ।। विलग्नश्च गले बालः स्वरभङ्गाय जायते ।
इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥' [ योगशा. ३।५०-५२] अप्रेक्ष्यजन्तुकं-अप्रेक्ष्यास्तमसा छन्नत्वात् द्रष्टुमशक्या जन्तुका अल्पजन्तवः सूक्ष्मजीवाः कुन्थ्वादयो जलघृतादिमध्यपतिता मोदकखजूराद्यनुषङ्गिणो वा यत्र तत् । तदुक्तम् -
'धोरान्धकाररुद्धाक्ष्यैः पतन्तो यत्र जन्तवः ।
नैव भोज्ये निरीक्ष्यन्ते तत्र भुञ्जीत को निशि ।।' [ योगशा. ३।४९ ] श्रावकाचारमें अणुव्रतोंसे पहले रात्रिभोजनका निषेध किया है । श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने अपने योगशास्त्रमें भोगोपभोग परिमाण व्रतके विवेचनमें रात्रिभोजनका निषेध किया है। किन्तु पं. आशाधरजीने पाक्षिक और अहिंसाणुव्रती नैष्ठिकके कथनमें रात्रिभोजन त्यागका कथन किया है। पाक्षिक श्रावक रात्रिमें जल, औषधि वगैरह ले सकता है । किन्तु अहिंसाणुव्रतका पालक व्रती नैष्ठिक रात्रि में यावज्जीवनके लिए मन, वचन, कायसे अन्न, पान, लेह्य और बाह्य चारों प्रकारके आहारका त्याग करता है। इस तरह पाक्षिक और नैष्ठिकके रात्रिभोजन त्यागमें बहुत अन्तर है। इसके त्यागसे जहाँ अहिंसाव्रतकी रक्षा होती है वहाँ मूलगुणोंमें निमलता भी आती है क्योंकि रात्रिभोजनमें जीवघात तो होता ही है मांसभक्षणका भी दोष लगता है ॥२४॥
रात्रिभोजनमें देखे जा सकनेवाले और न देखे जा सकनेवाले अनेक दोष हैं फिर भी जो रात्रिभोजन करते हैं उनका वक्रोक्तिसे तिरस्कार करते हैं
जिसमें जलोदर आदि रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आदि जन्तु वर्तमान रहते हैं, तथा जिसमें वर्तमान जन्तुओं को देखा नहीं जा सकता, भूत-प्रेत आदि जिसे जूठा कर जाते हैं ऐसे भोजनको तथा त्यागी हुई वस्तुको भी न देख सकने के कारण रात्रिमें खानेवाला अपनेको सुखी मानता है यह बड़ा आश्चर्य है ॥२५॥
विशेषार्थ-रात्रिभोजनमें दृष्ट और अदृष्ट दोष पाये जाते हैं। रात्रिमें जीवोंका संचार बढ़ जाता है और कितना ही प्रकाश करनेपर भी दिनकी तरह रात्रिमें दिखाई नहीं देता । फलतः भोजनमें गिर पड़नेवाले मक्खी, मकड़ी, जूं वगैरह दृष्टिगोचर नहीं होते और उनके भक्षणसे अनेक भयानक रोग हो सकते हैं। शास्त्रकारोंने कहा है कि भोजनमें यदि चींटी खायी जाये तो मेधाका घात करती है, जूं के खानेसे जलोदर रोग होता है। मक्खी खा लेनेसे वमन होता है। मकड़ी खा लेनेसे कुष्ठ रोग होता है। काँटा या लकड़ीसे गले में कष्ट हो जाता है । यदि बिच्छू भोजनमें गिर जाये तो तालुको डंकसे बींध देता है। बाल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org