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अथाष्टाकिंन्द्रध्वजो लक्षयति
एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय )
जिनाच क्रियते भव्यैर्या नन्दीश्वर पर्वणि ।
graisal सेन्द्राद्यः साध्या त्वेन्द्रध्वजो महः ॥ २६ ॥ भव्यैः- संभूयकरणज्ञापनार्थं बहुवचनम् । साध्या – क्रियमाणा ॥ २६ ॥ अथ महामहं निर्दिशति -
भक्त्या मुकुटबद्धेर्या जिनपूजा विधीयते ।
तदाख्याः सर्वतोभद्र - चतुर्मुख - महामहाः ॥२७॥
भक्त्या न चक्रवर्त्यादिभयादिना । एषापि कल्पवृक्षवत् । केवलमत्र प्रतिनियतजनपदविषयं दानादिकम्
॥२७॥
भक्तिपूर्वक गाँव, मकान, जमीन आदि शासनके विधान के अनुसार रजिस्ट्री आदि कराकर मन्दिरके निमित्त देना, अथवा अपने भी घर में तीनों सन्ध्याओंको अर्हन्त देवकी आराधना करना और मुनियोंका प्रतिदिन पूजापूर्वक आहारदान देना नित्यमह कहा है ||२५|| विशेषार्थ-महका अर्थ पूजा है । नित्यपूजा करना नित्यमह है । उसके ही ये प्रकार हैं । इनका कथन महापुराण में किया है । प्रतिदिन अपने घरसे पूजनकी सामग्री लेजाकर मन्दिर में पूजन करना नित्यपूजा है। इसमें इतनी विशेषता है कि पूजनकी सामग्री अपने घरकी होनी चाहिए। मन्दिरकी सामग्रीसे पूजा करना तभी उचित हो सकता है जब उसका मूल्य मन्दिरको चुका दिया हो । प्रतिदिन पूजा करनेवालोंको यह याद रखनेकी बात है । इसमें लोभ नहीं करना चाहिए। लोभ त्यागकर पूजा करनेसे सच्चा फल मिलता है । आगे जो बतलाये हैं वे सब इसी पूजा में निमित्त होनेसे नित्यमह कहे गये हैं । जैसे अपने द्रव्यसे जिनबिम्ब और जिनालयका निर्माण कराना । जहाँ मन्दिर न होनेसे पूजा नहीं होती वहाँ मन्दिर निर्माणपूर्वक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराना उचित है । किन्तु जहाँ जिनमन्दिर है और नित्यपूजाकी व्यवस्था नहीं है वहाँ जिनमन्दिर बनवाना या नयी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराना धर्म आसादना है । पूजनके निमित्त मन्दिरके नाम जायदाद वगैरहकी लिखा-पढ़ी करके देना भी नित्यमह है क्योंकि उसकी आमदनी नित्यपूजामें व्यय होनेवाली है । मन्दिरके सिवाय अपने घरपर भी प्रातः, मध्याह्न और सायंकालको सामायिक आदि करना भी नित्यमह है । और प्रतिदिन मुनियोंको अपने घरपर पड़गाहकर जो पूजा की जाती है जिसके बाद उन्हें आहारदान दिया जाता है वह भी नित्यमह है । ये सब नित्यमहके ही प्रकार हैं ||२५||
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ra अष्टक और ऐन्द्रध्वजका लक्षण कहते हैं
भव्य जीवोंके द्वारा नन्दीश्वर पर्व में अर्थात् प्रति वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुनके श्वेत पक्ष अष्टमी आदि आठ दिनोंमें जो जिनपूजा की जाती है वह अष्टाह्निकमह है । तथा इन्द्रप्रतीन्द्र सामानिक आदिके द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे ऐन्द्रध्वजमह कहते हैं ||२६||
१. विन्द्र - मु. सा.-१०
महामहका स्वरूप कहते हैं
मण्डलेश्वर राजाओंके द्वारा भक्तिपूर्वक जो जिनपूजा की जाती है उसके नाम सर्वतोभद्र, चतुर्मुख और महामह हैं ||२७||
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