________________
१२१
द्वादश अध्याय ( तृतीय अध्याय ) अपि च
'योगाविरतिमिथ्यात्व-कषायजनितोऽङ्गिनाम् । संस्कारो भावलेश्यास्ति कल्मषास्रवकारणम् ।। कापोती कथिता तीवो नीला तीव्रतरो जिनैः । कृष्णा तीव्रतमो लेश्या परिणामः शरीरिणाम् ।। पीता निवेदिता मन्दः पद्मा मन्दतरो बुधैः । शुक्ला मन्दतमस्तासां वृद्धिः षट्स्थानयायिनी ।। निर्मूलस्कन्धयोश्छेत्तुं भावाः शाखोपशाखयोः । उच्चये पतितादाने भावलेश्या फलाथिनाम् ।। षट् षट् चतुर्दा विज्ञेयास्तिस्रस्तिस्रः शुभास्त्रिषु ।
शुक्ला गुणेषु षट्स्वेका लेश्या निर्लेश्यमन्तिमम् ।।' [अमित. पं. सं. १।२६१-२६५] तत्कर्माणः क्रमेण यथा
'रागद्वेषग्रहाविष्टो दुर्ग्रहो दुष्टमानसः। क्रोधमानादिभिस्तीत्रैर्ग्रस्तोऽनन्तानुबन्धिभिः ।। निर्दयो निरनुक्रोशो मद्यमांसादिलम्पटः । सर्वदा कदनासक्तः कृष्णलेश्यान्वितो नरः ।। कोपी मानी मायी लोभी रागी द्वेषी मोही शोकी। हिंस्रः क्रूरश्चण्डश्चोरो मूर्खः स्तब्धः स्पर्धाकारी ।। निद्रालुः कामुको मन्दः कृत्यांकृत्यविचारकः। महामूर्ची महारम्भो नीललेश्यो निगद्यते ॥ शोकभीमत्सरासूया-परनिन्दा-परायणः ।
प्रशंसति सदात्मानं स्तूयमानः प्रहृष्यति ॥ जैसे कापोती तीव्र, नील तीव्रतर और कृष्णलेश्या तीव्रतम है। इसी तरह पीत मन्द, पद्म मन्दतर और शुक्ल मन्दतम है ।
इन लेश्याओंमें षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि हुआ करती है। एक दृष्टान्त द्वारा आगममें लेश्याओंका भाव स्पष्ट किया है कि छह पथिक जंगलमें मार्ग भल गये। वे भखे थे। उन्हें एक फलोंसे लदा वृक्ष मिला । एकने सोचा इस वृक्षको जड़से काटकर फल खायेंगे। उसके कृष्णलेश्या है। दूसरेने विचारा इसका तना काटकर फल खायेंगे। उसके नीललेश्या है। तीसरेके मनमें आया इसकी एक शाखा काटकर फल खायेंगे । उसके कापोतलेश्या है । चौथेके मनमें आया उपशाखा काटकर फल खायेंगे उसके पीतलेश्या है। पाँचवेने विचारा पेड़पर चढ़कर फल तोड़कर खायेंगे उसके पद्मलेश्या है । छठेने विचारा-पेड़के नीचे गिरे फल चुनकर खायेंगे उसके शुक्ललेश्या है । प्रथम चार गुणस्थानोंमें छहों लेश्या होती हैं । पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थानों में तीन शुभलेश्या होती हैं। आठवेसे तेरहवें तक छह गुणस्थानों में एक शुक्ललेश्या ही होती है । अन्तिम गुणस्थानमें लेश्या नहीं होती। इन लेश्यावाले जीवोंका लक्षण इस प्रकार है। जो राग द्वेष मदसे आविष्ट है, दुराग्रही है, दुष्ट अभिप्राय वाला है, अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभसे ग्रस्त है, निर्दयी है, मद्य मांसमें आसक्त है, अभक्ष्यभोजो है वह कृष्ण लेश्यावाला होता है । क्रोधी, मानी, मायाचारी, लोभी, रागी, द्वेषी, मोही,
सा.-१६
-
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org