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धर्मामृत ( सागार )
अथ दर्शनिकादिनामास्वस्वानुष्ठानदाढर्थ्याद् द्रव्यत एव दर्शनिकादिव्यपदेशः स्याद्भावतस्तु पूर्वः पूर्वोसाविति बोधयन्नाह
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तद्वद्दर्शनिकादिश्च स्थैर्यं स्वे स्वे व्रतेऽव्रजन् । लभते पूर्वमेवार्थाद्वयपदेशं न तूत्तरम् ॥५॥
तद्वत् - नैष्ठिकमात्रवत् । स्वे स्वे व्रते - निरतिचाराष्टमूलगुणादिलक्षणे ॥५॥
एतदेव समर्थयितुमाह -
प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नश्चार्हतस्य देशयमः ।
योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी ॥६॥
योगः - रत्नत्रयम् । योगीव - यथा प्रारब्धयोगो घटमानयोगो निष्पन्नयोगश्चेति नैगमादिनयापेक्षया त्रिविधो योगी तथा प्रारब्धदेशसंयमो घटमानदेशसंयमो निष्पन्नदेशसंयमश्चेति त्रिविधः श्रावकोऽपि स्यादित्यर्थः ॥ ६ ॥
एवं स्थलशुद्धि विधाय दर्शनिकादिस्वरूपनिरूपणार्थं श्लोकद्वयमाह-
विशेषार्थ - जिस पाक्षिकने प्रतिमा धारण की है यदि वह कदाचित् पुराने संस्कारके जाग्रत हो जाने से किसी एक इन्द्रिय विषयकी तीव्र इच्छा करता है या संयमका अभ्यास न होनेसे और मनको वशमें करना कठिन होनेसे किसी व्रतमें दोष लगा लेता है तो वह पाक्षिक ही कहलाता है, नैष्ठिक नहीं ॥४॥
इस प्रकार दर्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमाओंके धारी भी यदि अपनी-अपनी प्रतिमा में दृढ़ नहीं हैं तो वे द्रव्यसे ही उस प्रतिमावाले कहलायेंगे, भावसे तो उससे पूर्व प्रतिमाके धारी ही कहे जायेंगे, यह बतलाते हैं
उसी तरह दर्शनिक आदि श्रावक भी अपने-अपने व्रतमें यदि स्थिर न हों, कभी कहीं किंचित् भी डिंग जाते हों तो परमार्थसे पहलेकी प्रतिमावाले ही कहलाते हैं, उस पर्व की प्रतिमासे आगेकी प्रतिमावाले नहीं कहलाते ||५||
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विशेषार्थ - जैसे पहली प्रतिमावाला यदि निरतिचार अष्टमूल गुणके पालनमें कभी किंचित् दोष लगा लेता है तो वह भावसे पाक्षिक ही कहलायेगा । द्रव्यसे उसे भले ही पहली प्रतिमाका धारी कहा जाये ||५||
इसीका समर्थन करते हैं
जैसे योगी तीन प्रकार के होते हैं - एक योगकी प्रारम्भिक दशावाले, एक मध्यम दशावाले और पूर्ण दशावाले । इस तरह नैगम आदि नयकी अपेक्षा तीन प्रकारके योगी होते हैं । उसी तरह श्रावक भी तीन प्रकार के होते हैं - जिन भगवान्को ही एकमात्र शरण माननेवाले जिस श्रावकके देशसंयमकी प्रारम्भिक दशा होती है, दूसरे जिसके मध्यम दशा होती है और तीसरा जो पूर्ण देशसंयमको पालता है । ये तीनों ही देशसंयमी श्रावक होते हैं ॥६॥
इस प्रकार प्रारम्भिक कथन करके दो इलोकोंसे दर्शनिक श्रावकका स्वरूप कहते हैं-
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