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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) यजेत देवं सेवेत गुरून् पात्राणि तर्पयेत् ।
कर्म धर्म्य यशस्यं च यथालोकं सदा चरेत् ॥२३॥ यजेदित्यादि । दानयजनप्रधान इति दानस्य प्राचुर्येणानुष्ठानाथं प्रागुपादानम् । इह तु देवार्चनस्य पूर्ववचनं प्रथमं देवमर्चयेत्ततोऽन्यत्कृत्यं कुर्यादिति क्रमविधानदर्शनार्थम् । तथा श्लोकः
'दानं पूजा जिनेः शीलमपवासश्चतविधः। श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ॥' [ अमि. श्रा. ९।१ ] 'आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चैः, पानभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबद्धथा। तत्त्वाभ्यासः स्वकीयवतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं,
तद् गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनदुःखदो मोहपाशः ॥' [ पद्म. पञ्च. १।१३ ] कर्म-भृत्वाश्रितानित्यादि वक्ष्यमाणक्रमेण । यशस्यं च धयं तावदवश्यमाचरणीयम् । तच्चेत कीर्त्यर्थं स्यात्तदा सुतरां भद्रकमित्ययमर्थश्चशब्देनान्वाचीयते । अनुक्तासमुच्चये वात्र च । तेनायुष्यं च कर्म ब्राह्म महोत्थान-शरीर चिन्ता-दन्तधावनादिकमायुर्वेदप्रसिद्धमाचरेदिति लभ्यते । यन्मनु:
'स्वायुष्ययशस्यानि व्रतानीमानि धारयेत् ।' [ मनुस्मृ. ४।१३ ] इति । यथालोकम् । यदाह
'द्रम (?) स्वामि स्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम् । गुणदोषविभागेऽत्र लोक एव यतो गुरुः ।।' [
] ॥२३॥ धर्म है किन्तु पढ़ाना, पूजन कराना और दान लेना ये ब्राह्मणोंका ही मुख्य धर्म है इसलिए विशेष रूपसे उसका व्याख्यान करने के लिए आगेका कथन करते हुए पाक्षिक श्रावकको पूजन आदि करनेकी प्रेरणा करते हैं
श्रावकको नित्य जिनेन्द्रकी पूजा करनी चाहिए, गुरुओंकी सेवा, उपासना करनी चाहिए, पात्रोंको दान देना चाहिए, तथा धर्म और यश बढ़ानेवाले कार्य लोकरीतिके अनुसार करने चाहिए ॥२३॥
विशेषार्थ-मनुस्मृति (१।८८) में पढ़ाना, पढ़ना, यज्ञ करना, कराना, दान देना और लेना ये छह कर्म ब्राह्मणके ही बताये हैं और इनमें से तीन कर्म पढ़ना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रिय और वैश्यके बताये हैं । तदनुसार महापुराणमें भी भरत महाराजने जो व्रती वर्गके लिए ब्राझेण नामके चतुर्थ वर्णकी स्थापना की उनके लिए पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय संयम, तप ये षट्कर्म बताये। अतः जो व्रती श्रावक है वह ब्राह्मण है और स्वाध्याय संयम
और तपके साथ पूजा करने-कराने, तथा दान देने और लेनेका अधिकारी है। जो व्रती नहीं है वह पूजा करता है, दान देता है । दान लेनेका पात्र तो वही है जिसमें मोक्षके कारण गुण सम्यग्दर्शन आदि यथायोग्य विद्यमान है। उसे ही दान देना चाहिए। तथा दयाभावसे अपने
तोंका पालन करना चाहिए यह आगे कहेंगे। तथा जिससे संसारमें यश भी हो ऐसे भी कार्य करना चाहिए । 'च' शब्दसे अन्य कार्य भी लेना चाहिए। जैसे प्रातःकाल उठकर शारीरिक शुद्धि करना। यह सब काम श्रावकको लोकानुसार करना चाहिए। आचार्य पद्मनन्दिने गृहस्थाश्रमकी पूज्यता बतलाते हुए कहा है-जिस गृहस्थाश्रममें जिनेन्द्रोंकी पूजा १. 'ब्राह्मणाव्रतसंस्कारात्'-महापु. ३८।४६
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