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धर्मामृत ( सागार ) अष्टादशभिः पद्यौजिनपूजां प्रपञ्चयन्नाह
यथाशक्ति यजेतार्हदेवं नित्यमहादिभिः।
सङ्कल्पतोऽपि तं यष्टा भेकवत् स्वमहीयते ॥२४॥ यष्टा-ताच्छील्येन साधुत्वेन वा यजमानः । भेकवत्-राजगृहे नगरे श्रेष्ठिचरो दुर्दरो यथा । उक्तं च
'अहंच्चरणसपर्यामहानुभावं महात्मनामवदत् ।
भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥' [ रत्न. श्रा. १२० ] महीयते-पूज्यो भवति ॥२४॥ अथ नित्यमहमाहप्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहान्नीतेन गन्धाविना
पूजा चैत्यगृहेऽहंतः स्वविभवाच्चैत्यादिनिर्वापणम् । भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधादानं त्रिसन्ध्याश्रया
___सेवा स्वेऽपि गृहेऽर्चनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ॥२५॥ विदाकरणां ( ? )। स्वे-निजे । अपिशब्दाच्चैत्यगृहे ॥२५॥ की जाती है, निग्रन्थ गुरुओंकी विनय की जाती है, धार्मिक पुरुषों के प्रति अत्यन्त प्रीति रहती है, पात्रोंको दान दिया जाता है, जो विपत्तिसे ग्रस्त जन होते हैं उनकी करुणाभावसे मदद की जाती है, तत्त्वोंका अभ्यास किया जाता है, अपने व्रतोंसे अनुराग होता है, निर्मल सम्यग्दर्शन होता है, वह गृहस्थाश्रम विद्वानोंके द्वारा भी पूज्य होता है। इससे विपरीत गृहस्थाश्रम तो दुःखदायक मोहपाश ही है ॥२३॥
आगे अठारह पद्योंसे जिनपूजाका विस्तारसे कथन करते हैं
श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार नित्यमह आदिके द्वारा अहन्त देवकी पूजा करनी चाहिए । क्योंकि 'मैं अर्हन्त देवकी पूजा करूँ' इस प्रकारके विचार मात्रसे भी जिनेन्द्रदेवका पूजक मेढककी तरह स्वर्गमें महर्द्धिक देवोंके द्वारा पूजा जाता है ।।२४।।
विशेषार्थ-रत्नकरण्डश्रावकाचारमें चतुर्थ शिक्षाव्रतका नाम वैयावृत्य है । आचार्य समन्तभद्रने उसीमें देवपूजाको भी रखा है और श्रावकको प्रतिदिन आदर पूर्वक देवाधिदेव जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी पूजा करनेका उपदेश देते हुए कहा है कि अहन्त भगवान के चरणोंकी पूजाका माहात्म्य तो राजगृही नगरीमें आनन्दसे मत्त मेढकने एक फूलके द्वारा बतलाया था। अर्थात् पूर्व जन्मका श्रेष्ठी, जो मायाबहुल होनेसे मरकर अपनी ही बावड़ीमें मेढक हुआ था, भगवान महावीरके समवसरणमें जाते हुए राजा श्रोणिकके हाथीके पैरसे कुचलकर मर गया । उस समय वह भी भगवान के दर्शनाथ मुखमें एक कमलका फूल लेकर जाता था। मरकर वह स्वर्गमें देव हुआ और अवधिज्ञानसे सब पूर्ववृत्तान्त जानकर महावीर भगवान्के समवसरणमें उपस्थित हुआ । जब देवपूजाके विचार मात्रका इतना फल है तब शरीरसे जल चन्दन आदिके द्वारा और वचनोंसे स्तवनके द्वारा पूजन करनेका तो फल कहना ही क्या है ॥२४॥
नित्यमहका स्वरूप कहते हैं
प्रतिदिन अपने घरसे लाये गये जल, चन्दन, अक्षत आदिके द्वारा जिनालयमें जिन भगवान्की पूजा करना, अथवा अपने धनसे जिनबिम्ब-जिनालय आदिका बनवाना, अथवा
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