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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय) निर्दोषां-उत्तरत्वं [ उन्नतत्वं ] कनीमिकयोर्लोमशत्वं जङ्घयोरमांसलत्वमूर्वोरचारुत्वं कटि-नाभिजठर-कुचयुगलेषु, शिरालत्वाशुभसंस्थानत्वे बाह्वोः, कृष्णत्वं तालु-जिह्वाधर-हरीतिकीषु, विरलविषमभावी दशनेषु, सकूपत्वं कपोलयोः, पिङ्गलत्वमक्ष्णोर्लग्नत्वं चिल्लिकयोः, स्थपुटत्वं निडाले, दुःसन्निवेशत्वं ३ श्रवणयोः, स्थूलपरुषकपिलभावः केशेषु, अतिदीर्घातिलघुन्यूनाधिकता-समविकट-कुब्जवामन-किरातांगत्वं जन्मदेहाभ्यां समानत्वाधिकत्वे च' (नीतिवा. ३१११४)। इत्यादि कन्यादोषरहिताम् । यदाह-'वरं वेश्यापरिग्रहो नाविशुद्धकन्यापरिग्रहः' इति । सुनिमित्तसूचितशिवां-सुनिमित्तः सामुद्रिकदूतज्योतिषादि- ६ भविष्यच्छुभाशुभज्ञानोपायैः सूचितं प्रकाशितं शिवं स्वस्य वरस्य कल्याणं यस्यास्ताम् । किं च वरितरि दूते वा सहसा कन्यागृहं गते सति कन्या अभ्यक्ता व्याधिमती रुदती पतिघ्नी सुसा स्तोकायुरप्रसन्ना दुःखिता बहिर्गता, कुलटा कलहोद्युक्ता परिजनोद्वासिनी अप्रियदर्शना च दुर्भगा स्यादिति न तां वृणीत कन्याम् । वराहैर्गुणैः- ९ कुलीन-सुशीलत्वादिभिः । उक्तं च
'कुलं च शीलं च सनाथता च विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च ।
एतान् गुणान् सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधैः शेषमचिन्तनीयम् ॥' [ ] १२ कुलस्य प्रागुपादानमकुलीने कन्याविनियोगस्यात्यन्तनिषेधार्थम् । यदाह'वरं जन्मनाशः कन्याया ना.............
परिणाय्य-[युक्तितो वर-] णविधानमरिनदेवद्विजसाक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहस्तं कारयित्वा । १५ यदाह-"विवाहपूर्वो व्यवहारश्चातुर्वण्यं कुलीनयतीति, [-नीतिवा. ३११२] धम्यविधिना-घा:-धर्मादनपेताः ब्राह्मणप्राजापत्यार्षदैवाश्चत्वारो विवाहाः । ततोऽन्ये गान्धर्वासुरराक्षसपैशाचाश्चत्वारोऽधाः । तल्लक्षणनि यथा
विशेषार्थ-भारतीय धर्ममें गृहस्थाश्रमका बहुत महत्त्व है। आचार्य पद्मनन्दिने कहा है कि इस कलिकालमें जिनालय, मुनि, धर्म और दान इन सबका मूल कारण श्रावक हैं। श्रावक न हों तो इनमें से कोई भी रक्षित नहीं रह सकता । अतः इन सबकी स्थिति तभी तक है जब तक श्रावक और श्राविकाओंमें धार्मिक प्रेम है । इसीसे विवाह सम्बन्ध साधर्मियोंमें ही करनेपर जोर दिया है । भारतमें विवाहिताको केवल पत्नी नहीं कहते, धर्मपत्नी कहते हैं । क्योंकि वह पतिके धर्मकी भी सहचारिणी होती है । पत्नीके योग्य होनेपर ही पतिका भी योगक्षेम चलता है और धर्मसाधन होता है। अतः वैवाहिक सम्बन्ध बहुत सोच-समझकर किया जात ता है। सबसे प्रथम कन्याका कुल शील सौभाग्य आदि देखा जाता है, इसी तरह कन्यापक्षकी ओरसे वरके गुण देखे जाते हैं तब विवाह होता है ।
कन्या निर्दोष होना चाहिए-आँखकी पुतलियोंका उठा होना, जंघाओंपर रोम होना, उरुओंका मांसविहीन होना, कटि-नाभि-उदर और कुच युगलका सुन्दर न होना, बाहुओं पर नसोंका उभार तथा उनका आकार सुन्दर न होना, तालु, जीभ और ओठोंपर कालापन होना, दाँतोंका विरल और टेढ़े-मेढ़े होना, कपोलोंकी हड्डीका उठा होना, आँखोंमें पीलापना, भौंहोंका जुड़ा होना, मस्तकका उठा होना, कानोंकी रचना खराब होना, केशोंका स्थूल, कठोर और पीला होना, अतिलम्बी या अतिलघु होना, अंगोंका कुबड़ा बौना आदि होना दोष है । इत्यादि दोषोंसे रहित कन्या होना चाहिए । कहा है-वेश्याको स्वीकार करना उत्तम है किन्तु .१. 'संप्रत्यत्र कलो काले जिनगेहो मुनिस्थितिः । धर्मश्च दानामित्येषां श्रावका मूलकारणम् ॥
-पद्म. पञ्च.६६
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