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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय )
'कुच्छियपत्ते किंचिवि फलइ कुदेवेसु कुणरतिरियेसु । कुच्छिभोयधरासु य लवणंबुहि कालउयहीसु ॥ एए जरा पसिद्धा तिरिया य हवंति भोगभूमीसु । सुत्तरवहिरे असंखदीवेसु ते हुंति ।
सव्वे मर्दकसाया सव्वे निस्सेसवाहिं परिहीणा । मरिण वितरावि जोइसभवणेसु जायंति ॥ तत्थ चुया पुण संता तिरियणरा पुण हवंति ते सव्वे | काऊ तत्थ पाव पुणो विणिरयावहा हुंति ॥ चंडाल भिल्ल छिप्पय लोलय कल्लाल एवमाईणि । दीसंति रिद्धिपत्ता कुच्छियपत्तस्स दाणेण ॥ केई पुण गयतुरया गेहे रायाण उण्णई पत्ता | दीसंति पव्व लोए कुच्छियपत्तस्स दाणेण || केई दिवो ववण्णा वाहणत्तणे मणुया । सोयंति जाय दुःखापिच्छिय रिद्धि सुदेवाणं ॥ स्वर्भुवः - कल्पोपपन्नदेवाः । उक्तं च
'पात्राय विधिना दत्वा दानं मृत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः ॥ ज्ञात्वा धर्मप्रसादेन तत्र प्रभवमात्मनः । पूजयन्ति जिनास्ते भक्त्या धर्मस्य वृद्धये ॥ सुखवारिधिमग्नास्ते सेव्यमानाः सुधाशिभिः । सर्वदा व्यवतिष्ठन्ते प्रतिबिम्बैरिवात्मनः ॥ नवयौवनसम्पन्ना दिव्यभूषणभूषिताः । ते वरेण्याद्यसंस्थाना जायन्तेऽन्तर्मुहूर्ततः ।।
[ भावसं. ५३३, ५४०-५४५ ]
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पात्र है । जो एकसे लेकर ग्यारह तक प्रतिमा पालता है वह मध्यम पात्र है । निर्मल सम्यग्दृष्टि, जिसे जन्म-जरा-मरण आदिका भय नहीं सताता, संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त रहता है, निरन्तर अपनी निन्दा-गर्दा करता है, आत्मतत्त्व और परतत्त्वके विचारसे पण्डित है, किन्तु व्रताचरणकी ओर उत्सुक नहीं है वह जघन्य पात्र है । जो कठोर आचरण करता है, परोपकारी है, असत्य और कठोर वचन नहीं बोलता, धन- स्त्री परिग्रहसे निस्पृह है, कषाय और इन्द्रियों का जी है परन्तु घोर मिथ्यात्व से युक्त है वह कुपात्र है । जो घोर मिध्यात्वी होनेके साथ व्रतशील संयमसे भी रहित है वह अपात्र है । जैसे पात्रके चार भेद हैं वैसे ही भोगभूमि भी उत्कृष्ट मध्यम आदि चार प्रकार हैं । दान देनेवाला यदि मिथ्यादृष्टि है, वह यदि जघन्य पात्र सम्यग्दृष्टिको दान देता है तो मरकर जघन्य भोगभूमि में जन्म लेता है, यदि सम्यक्त्व और अणुव्रत सहित मध्यम पात्रको दान देता है तो मध्यम भोगभूमि में जन्म लेता है । यदि सम्यग्दर्शन और महाव्रतसे भूषित उत्तम पात्रको दान देता है तो उत्तम भूमि में जन्म लेता है और वहाँ निर्बाध भोगोंको भोगकर अपनी आयु क्षय होनेपर यथायोग्य देव होता है । इसका कारण यह है कि जैसे पात्रको वह दान देता है उसी प्रकार के शुभ परिणाम होने से उसी जातिके पुण्यका बन्ध करता है । वही यदि सम्यक्त्वसे रहित
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