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धर्मामृत ( सागार) ____ अथ परै [ विधेयतया व्यवस्थाप्यमानं हिंस्रादिप्राणिनां वधं प्रतिविधातुमाह-]
हिस्र-दुखि-सुखि-प्राणिघातं कुर्यान्न जातुचित् । _अतिप्रसङ्ग-श्वभ्राति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् ॥८३॥
[ अत्र केचिदाहुः हिंस्रजीवा हन्तव्याः ] हिंस्र ोकस्मिन् हते भूयसां रक्षा कृता भवति । ततश्च धर्मा [-धिगमः पापोपरमश्च स्यात् ] इति तदयुक्तमतिप्रसङ्गात् । सर्वेषां प्राणिनां हिंस्रतया [हन्तव्यतानुषङ्गात् । ६ तथा च लाभमिच्छतां तथावादिनां मूलोच्छेदः स्यात् । न च बहरक्षणाभिप्रायेणापि हिंस्रं हिंसतो धर्मः पा-] पोच्छेदो वा युज्यते दयामूलत्वात्तयोः । उक्तं च
_ 'केचिद् वदन्ति...हन्तव्यता स्यात् । लाभमिच्छार्मूलक्षतिः स्फुटा।
अहिंसा..... हेतुः कालकूटं चेवितायन जायते ॥' । यच्च संसारमोचकाः [प्रचक्षते दुःखिनो जीवा हन्तव्यास्तेषां विनाशे दुःखविनाशसंभवादिति । तदप्ययुक्तं तेषां स्वल्पदुःखानां निहतानां नरकेऽनन्त ] दुःखसंयोजनाया दुनिवारत्वात् । उक्तं च
'दुःखवतां भवति वधे धर्मो नेदमपि युज्यते वक्तुम् । मरणे नरके दुःखं घोरतरं वार्यते केन ॥' [ अमि. श्रा. ६।३९ ]
करनेवाला अधिक पापी होता है। उदाहरणके लिए एक किसान खेत जोत रहा है और खेत जोतनेसे बहुत-से जीवोंका घात हो रहा है। तथा एक मछलीमार पानीमें जाल डाले बैठा है उस समय वह किसी की जान नहीं लेता। फिर भी किसानसे मछलीमार अधिक पापी है । क्योंकि किसानका भाव जीव मारनेका नहीं है अन्न पैदा करनेका है और मछलीमारका भाव मछली मारनेका है । अतः दोनों के भावोंमें बहुत भेद है ।।८२॥
कुछ लोग हिंसक आदि प्राणियोंको मारनेका विधान करते हैं। उनका निषेध करते हैं
हिंसक, दुःखी और सुखी प्राणीका घात कभी भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेसे अतिप्रसंग, नरककी पीड़ा और सुखका विनाश देखा जाता है ॥८३।।
विशेषार्थ-कुछ लोग कहते हैं कि हिंसक जीवोंको मार देना चाहिए, क्योंकि एक शेर वगैरहको मार देनेपर बहुत-से जीवोंकी रक्षा हो जाती है। और ऐसा होनेसे धर्मकी प्राप्ति और पापसे छुटकारा होता है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, इसमें तो अतिप्रसंग आता है । क्योंकि यदि यह नियम बनाया जाता है कि हिंसकको मार देना चाहिए तो जो हिंसकको मारेगा वह भी हिंसक होगा। तब उसे भी मार देना चाहिए। उसे जो मारेगा वह भी हिंसक होगा। अतः उसे भी मार देना होगा। इस तरह सभीके हिंसक होनेसे सभीको मार डालनेका प्रसंग आयेगा। तब लाभके बदलेमें मूलका ही उच्छेद हो ज तथा बहुत जीवोंकी रक्षाके अभिप्रायसे हिंसकको मारनेवालेको न तो धर्म ही होना सम्भव है और न पापका ही उच्छेद होना सम्भव है। क्योंकि उनका मूल तो दया है। पहले एक मतवालोंका कहना था कि दुःखी जीवोंको मार देना चाहिए इससे वे दुःखसे छूट जाते हैं। किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ तो उन्हें कम दुःख है । यदि मरनेपर वे नरकमें गये तो उनको अनन्त दुःख उठाना होगा। कहा है-दुखी जीवोंको मरनेमें धर्म होता है ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि मरनेपर नरकके घोर दुःखसे कौन बचा सकता है। किन्हींका मत है कि संसारमें सख दर्लभ है अतः सखी जीवोंको मार देना चाहिए क्योंकि सखी जीव मरकर अगले भवमें सुखी ही होंगे। यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि सुखीको
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