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धर्मामृत (सागार)
सत्रिवर्गः - धर्मार्थकामानां सद्गृहिणीमूलत्वात् । तथाहि धर्मः स्वदारसन्तोषाद्यात्मक संयमासंयमलक्षणो देवादिपरिचरणस्वरूपः सत्पात्रदानादिस्वभावश्च । अर्थो वेश्यादिव्यसनव्यावर्तनेन निष्प्रत्यूहमर्थस्यो३ पार्जनादुपार्जितस्य च रक्षणाद् रक्षितस्य च वर्धनाद्यथाभाग्यं ग्रामसुवर्णादिसंपत्तिः । कामश्च यथेष्टमाभिमानिकरसानुविद्धसर्वेन्द्रियप्रीतिहेतुः कुलाङ्गनासंगिनां सुप्रतीतः । तथा च स्वयं प्रायुङ्क्त सिद्ध्यङ्के'जगद्वधूद्याननगप्लवङ्गं या स्वोपभोगेन नियत्यचेतः ।
भर्तुः स भागन् जनयत्युरस्थान् प्रादान्न कि कन्यतमां ददत्ताम् ॥' श्रीः सर्वभोगीणवपुःप्रयोगैरक्षिप्तचित्ते ध्रुवमिद्धरागा । विपत् समवै कामा तदेकभोग्यां सुकलत्रमूर्तिम् ॥ सर्वाणि लोके सुखसाधनानि स्वार्थक्रियावन्ति यतो भवन्ति । तामेव युक्त्वा खितमां स्वनेत्रा मनस्विनः स्वेत्तरयेत्सुधर्मः ॥' [ अथ कुलस्त्रीपरिग्रहं लोकद्वयाभिमतफलसम्पादकत्वात् त्रैवर्गिकस्य विधेयतयोपदिशति - धर्मसन्ततिमक्लिष्टां रति वृत्तकुलोन्नतिम् ।
देवादिसत्कृति चेच्छन्सत्कन्यां यत्नतो वहेत् ॥६०॥ धर्मंसन्तति-धर्मार्थान्यपत्यानि धर्माविच्छेदे वा । अक्लिष्टां - अनुपहताम् । कुलं – वंशो गृहं च । १५ वहेत् - परिणयेत । उक्तं च
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'धर्मसन्ततिरनुपहता रतिः गृहवार्ता सुविहितत्त्वमाभिजात्याचारविशुद्धत्वं । देवद्विजातिथिबान्धवसत्कारानवद्यत्वं च दारकर्मणः फलम् ॥'
[ नीतिवा. ३१।३० ] ॥ ६० ॥
विशेषार्थ - कुलीनता आदि गुणोंसे युक्त और सामुद्रिक शास्त्रमें कहे गये दोषोंसे रहित कन्याको सत्कन्या कहते हैं । जहाँ धर्मका अनुष्ठान होता है उसे आश्रम कहते हैं । घर भी एक आश्रम है जिसमें रहकर गृहस्थ धर्मपूर्वक अर्थ और कामका साधन करता है । धर्म अर्थ और कामकी मूल सती पत्नी ही होती है । पत्नीके सहयोग से गृहस्थ स्वदार सन्तोष आदि रूप संयमका पालन करता है, देव आदिकी पूजन आदि करता है, सत्पात्रों को दान देता है । ये सब धर्म के अंग हैं । पत्नी के होने से वेश्या सेवन आदि व्यसनोंसे बचनेके कारण बिना बाधा के धनका उपार्जन करता है, उपार्जितकी रक्षा करता है और रक्षित धनको बढ़ाता है । इस तरह उसके पास ग्राम, सुवर्ण आदि सम्पत्ति संचित होती रहती है । सम्भोगकी अभिलाषाको काम कहते हैं । कुलांगना के साथ इच्छानुसार कामभोगसे समस्त इन्द्रियोंकी तृप्ति होती है । इस तरह सत्कन्याकी प्राप्तिसे धर्म-अर्थ-काम सहित गृहाश्रम ही प्राप्त होता है । इसी से लोकमें भी घर नाम घरवालीका ही है । योग्य घरवालीके अभाव में ईंट-पत्थर से बनी दीवारोंके छाजनका नाम घर नहीं है । नीतिवाक्यामृतमें भी ऐसा ही कहा है। आशाधरजी ने अपने सिद्धयंक महाकाव्य में कहा है- 'जो पत्नी पतिके मनको अपनेमें बाँधकर रखती है वैसी पत्नी जिसने दी उसने क्या नहीं दिया ? || ५९ ||
सत्कन्याका पाणिग्रहण इस लोक और परलोक में इष्ट फलका दायक होता है अतः गृहस्थको उसे करनेका उपदेश देते हैं
धार्मिक सन्तानको जन्म देने या धर्मकी परम्परा चालू रखने, बिना किसी प्रकार की बाधाके सम्भोग करने व चारित्र और कुलकी उन्नति तथा देव, द्विज और अतिथिका सत्कार करनेके इच्छुक श्रावकको सज्जनकी सत्कन्याको तत्परताके साथ विवाहना चाहिए ॥६०॥
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