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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) अथ कलो वसतिविशेषं विना सतामप्यनवस्थितचित्तत्वं दर्शयति
मनो मठकठेराणां वात्ययेवानवस्थया।
चेक्षिप्यमाणं नाद्यत्वे क्रमते धर्मकर्मसु ॥३८॥ मठकठेराणां-वसतिदरिद्राणाम् । अद्यत्वे-इदानींतनकाले । क्रमते-उत्सहते ॥३८॥ अथ विमर्शस्थानं विना महोपाध्यायानामपि शास्त्रान्तस्तत्त्वज्ञानदो:स्थित्यं प्रथयति
विनेयवद् विनेतृणामपि स्वाध्यायशालया।
विना विमर्श शून्या धीदृष्टऽप्यन्धायतेऽध्वनि ॥३९॥ विनेयवत् -शिष्याणां यथा । अध्वनि-मार्गे अर्थाच्छास्त्रे निःश्रेयसे वा ॥३९॥
अथ सत्रातुरोपचारस्थानयोरनुकम्प्यप्राण्यनुग्रहबुद्धया विधापनं बह्वारम्भरतानां गृहस्थानां जिनपूजार्थ पुष्पवाटिकादिनिर्मापणे दोषाभावं च प्रकाशयन्नाह
सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनुजिघृक्षया।
चिकित्साशालवदुष्येन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ॥४०॥ आगे कहते हैं कि कलिकालमें मुनियोंका भी मन वसतिकाके बिना स्थिर नहीं रहता
इस पंचम कालमें वायुमण्डलके द्वारा उड़ती हुई रुईकी तरह चंचल हुआ जंगलवासी मुनियोंका भी मन वसतिकाके बिना धार्मिक क्रियाओंमें उत्साहित नहीं होता ॥३८॥
विशेषार्थ-प्राचीन समयमें मुनि वनोंमें रहते थे । रत्नकरण्डे श्रावकाचारमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारीको घर छोड़कर मुनिवनमें जानेका निर्देश है । धीरे-धीरे मुनियोंका निवास प्रामनगरोंमें होने लगा। आचार्य गुणभद्रने अपने आत्मानुशासनमें इसपर खेद प्रकट करते हुए कहा है कि जैसे रात के समय भीत मृग वनसे नगरोंके निकट आ जाते हैं उसी तरह कलिकालमें तपस्वी भी नगरोंमें रहने लगे हैं। तब उनके निवासके लिए श्रावकलोग गफा वगैरह बनाने लगे। उसके बिना साधओंका चित्त भी धर्म में नहीं लगता। अतः मन्दिरोंकी तरह साधुओंके ठहरनेका स्थान भी बनाना चाहिए ॥३८॥
___ आगे कहते हैं कि स्वाध्यायशालाके बिना गुरुओंके भी शास्त्रज्ञानमें कमी आ जाती है.--
स्वाध्यायशालाके बिना शिष्योंकी तरह गुरुओंकी भी विचारशून्य बुद्धि देखे हुए भी शास्त्र या मोक्षमार्गके सम्बन्धमें अन्धेके समान आचरण करती हैं। अर्थात् शिष्यकी तो बात ही क्या, पढ़ानेवाले गुरु भी यदि शास्त्रचिन्तन निरन्तर न करें तो वे भी तत्त्वको भूल जाते हैं-उलटा-सीधा बतलाने लगते हैं। इसलिए स्वाध्यायशाला अत्यन्त आवश्यक है ॥३९॥
आगे कहते हैं कि दयाके योग्य प्राणियों के लिए भोजनशाला, औषधालय आदि भी बनवाना चाहिए
भूख, प्यास और रोगसे पीड़ित गरीब प्राणियोंका उपकार करनेकी इच्छासे औषधालयकी तरह भोजनशाला भी बनवाना चाहिए। तथा पूजाके लिए बगीचा बनवाने में भी दोष नहीं है ॥४॥ १. 'गृहतो मुनिवनमित्वो...'-रत्न. श्रा. १४७ श्लो.। २. 'इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः ।
वनाद्विशन्त्युपग्रामं कलो कष्टं तपस्विनः ॥-आत्मानु., १९७ श्लो. ।
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