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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) पार्वे गुरूणां नृपवत्प्रकृत्यभ्यधिकाः क्रियाः।
अनिष्टाश्च त्यजेत्सर्वा मनो जातु न दूषयेत् ॥४७॥ प्रकृत्यभ्यधिकाः-स्वभावादतिरिक्ता वैकारिकीः कोप-हास्य-विवादादिकाः । अनिष्टाः-पर्यस्तिकोपा- ३ श्रयादिकाः । उक्तं च
'निष्ठीवनमवष्टम्भं जम्भणं गात्रभञ्जनम् । असत्यभाषणं नमहास्यं पादप्रसारणम् ॥ अभ्याख्यानं करस्फोट करेण करताडनम् । विकारमङ्गसंस्कारं वर्जयेद्यतिसंनिधौ ॥
] ॥४७॥ अथ पात्राणि तर्पयेदित्यादि पर्वोदृिष्टदानादि विधिप्रपञ्चार्थमाह
पात्रागमविधिद्रव्य-देश-कालानतिक्रमात् ।
दानं देयं गृहस्थेन तपश्चयं च शक्तितः॥४८॥ स्पष्टम् । उक्तं च
'यथाविधि यथादेशं यथाद्रव्यं यथागमम् ।
यथापात्रं यथाकालं दानं देयं गृहाश्रमैः ॥ [ सो. उपा., ७६५ श्लो. ] ॥४८॥ अथ सम्यग्दृशो नित्यमवश्यतया विधीयमानयोनितपसोरवश्यं-भाविनं फलविशेषमाह
नियमेनान्वहं किचिद्यच्छतो वा तपस्यतः ।
सन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोका जिनश्रितः॥४९॥ महीयांसः-इन्द्रादिपदलक्षणाः । जिनश्रितः-जिनं सेवमानस्य ॥४९॥
राजाकी तरह गुरुओंके समीपमें अस्वाभाविक तथा शास्त्रनिषिद्ध समस्त चेष्टाओंको नहीं करना चाहिए । तथा गुरुके मनको कभी भी दूषित नहीं करना चाहिए ॥४७॥
विशेषार्थ-गुरुओंके सामने थूकना, सोना, जंभाई लेना, शरीर ऐंठना, झूठ बोलना, ठठोली करना, हँसना, पैर फैलाना, दोष लगाना, ताल ठोकना, ताली बजाना, विकार करना तथा अंग संस्कार नहीं करना चाहिए। ये क्रियाएँ अस्वाभाविक कहलाती हैं ॥४७॥
पहले कहा था कि 'पात्रोंको सन्तुष्ट करना चाहिए', अतः दान आदिकी विधिको विस्तारसे कहते हैं
गृहस्थको पात्र, आगम, विधि, द्रव्य, देश और कालके अनुसार शक्तिपूर्वक दान देना चाहिए और शक्ति अनुसार तप करना चाहिए। अर्थात् दान देते समय पात्र आदिका ध्यान रखकर तदनुसार ही दान देना चाहिए। यदि उत्तम पात्र है तो उसको आगमके अनुसार नवधा भक्ति पूर्वक ऐसा सात्त्विक आहार देना चाहिए जो ऋतुके अनु
नुकूल होनेके साथ इन्द्रिय बलवर्धक और कामोद्दीपक न हो । इसी प्रकार समझ लेना चाहिए ॥४८॥
सम्यग्दृष्टिके द्वारा नित्य अवश्य दान देने और तप करनेका अवश्य होनेवाला फल कहते हैं
परमात्माकी सेवा करनेवाला जो भव्य प्रतिदिन नियमपूर्वक शास्त्रविहित कुछ भी दान देता है और तपस्या करता है उसके परलोक अर्थात् आगेके जन्म अवश्य ही महान् होते हैं । अर्थात दूसरे जन्ममें वह इन्द्र आदिके महान पद पाता है ।।४।।
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