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धर्मामृत ( सागार) दुःषमाकालरात्रि-दुःषमा पञ्चमकालः, कालरात्रिमरणनिशेव दुनिवारमोहावहत्वात् । देवविशादेवं परमात्मानं विशति अनन्यशरणीभय संश्रयतीति क्विबन्तादजाद्यतष्टाप् ॥३६॥ अथ कलौ धर्मस्थितिः सम्यक् चैत्यालयमूलैवेत्यनुशास्तिप्रतिष्ठायात्रादिव्यतिकर-शुभ-स्वरचरण
स्फुरद्धर्मोद्धर्षप्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रमणगणधर्माश्रमपदं
न यत्राहंद्रोहं दलितकलिलोलाविलसितम् ॥३७॥ यात्रादि । आदिशब्देन पूजाभिषेकजागरणादि । यदाह
'यात्रादिस्नपनैमहोत्सवशतैः पूजाभिरुल्लोचकैः, नैवेद्यैर्बलिभिवंजैश्च कलशैस्तूर्यत्रिकैर्जागरैः । घण्टाचामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां
भव्याः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये ।' [ पद्म. पञ्च. ७।२३ ] स्वैरं-स्वच्छन्दम् । उद्धर्षः-उत्सवः । रसः-हर्षो जलं च । रजः-पापं रेणुश्च । कलिलोलाविलसितं-मठपत्यादिदुर्नयो निरङ्कुशविजृम्भमाणसंक्लेशपरिणामो वा ॥३७॥
विशेषार्थ-सच्चा जिनभक्त वही है जो एकमात्र जिनेन्द्रदेवको ही अपना शरण मानता है। जो उनके सिवाय किसी अन्य देवको शरण मानता है वह सच्चा जिनभक्त नहीं है । जैन परम्परामें ऐसे भी विद्वान् भट्टारक आदि हुए हैं और आज भी हैं जो शासन देवताओंकी उपासनाके पक्षपाती रहे, यह भी कलिकालका प्रभाव है। किन्तु सभी ऐसे नहीं होते । जैन परम्परामें सदा ऐसे मुनिराज होते आये हैं जो ज्ञान और वैराग्यमें तत्पर रहते हुए जिन दर्शनके बिना भी परमात्माको ही अपना शरण मानते हैं। निश्चय नयसे तो कोई भी किसीका शरण नहीं है; रत्नत्रयमय आत्मा ही आत्माका शरण है। इस तरहकी श्रद्धाके लिए गृहस्थ विद्वान्को भी प्रतिदिन देवदर्शन करना आवश्यक है ॥३६॥
आगे कहते हैं कि कलिकालमें धर्मस्थितिका मूल जिनालय ही हैं
जिस नगर आदिमें कलिकालकी लीलाके विलासको नष्ट करनेवाला और मुनिसंघोंके धर्म साधनके लिए निवासस्थान जिन मन्दिर नहीं है, उन स्थानोंमें प्रतिष्ठा, यात्रा आदि महोत्सवोंमें होनेवाला जो मन-वचन-कायका शुभ व्यापार और उससे होनेवाला जो धर्मोत्साह, वही हुआ जल प्रवाह, उस प्रवाहसे जिनकी पापरूपी धूलि दूर हो गयी है ऐसे गृहस्थ कैसे हो सकते हैं। आशय यह है कि जिन मन्दिर होनेसे प्रतिष्ठा, पूजा, अभिषेक आदिके आयोजन होते हैं। उन धार्मिक आयोजनोंमें सभी स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। इससे उनका धर्मोत्साह बढ़ता है, उससे उनके पापकर्मोंकी शान्ति होती है। किन्तु जहाँ जिन-मन्दिर नहीं होता वहाँ कोई भी धार्मिक आयोजन नहीं होता। फलतः गृहस्थोंकी धार्मिक भावनामें ज्वार-भाटा आनेका कभी प्रसंग नहीं होता। आचार्य पद्मनन्दिने कहा है-चैत्यालयके होनेपर भव्यलोक यात्राओं, अभिषेकों, सैकड़ों महान् उत्सवों, पूजाविधानों, चन्दोवों, नैवेद्यों, उपहारों, ध्वजाओं, कलशों, गीतों, वादित्रों, नृत्यों, जागरणों, घण्टा, चामर, दर्पण आदिके द्वारा उत्कृष्ट शोभाका विस्तार करके निरन्तर पुण्यका संचय करते हैं !॥३७॥
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