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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय )
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विभवाच्छेदाय-विभवस्याणिमादिविभूतेविणस्य वा अच्छेदो निरन्तरप्रवृत्तिस्तदर्थः । यष्टुःआत्मनः पूजयितुः । यदाह
'भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरीः स्त्रियः । विभवो दानशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ।। आत्मचित्तपरित्यागात्परैर्धर्मविधापने।
निःसन्देहमवाप्नोति परभोगाय तत्फलम् ।।' [ सो. उपा. ७८९-७८८ ] एतच्च समर्थः सन् यः स्वयं न करोति तदपेक्षयोच्यते । स्वयं कर्तुमसमर्थस्य तु श्रद्धधानस्य परधर्मविधापने विधीयमानस्य वानुमोदनेऽपि महती पुण्यप्रसूतिरिष्यते, परिणामैककारणात्वात्पुण्यपापयोः । दिविजस्रजे-स्वर्गजन्ममन्दारमालार्थम् । उमा-लक्ष्मी । यदाह
'उमा श्री रती कान्तिः कीर्तिर्दुर्गा पुलोमजा।
उमाशब्देन कथ्यन्ते कायस्तुङ्गोपमाचिषः ॥ [ त्विषे-दीप्त्यर्थम् । विश्वदृगुत्सवाय-पपमसौभाग्यार्थम् । अर्धाय-पूजाविशेषार्थम् । सः १२ लिए या सदा बने रहने के लिए होते हैं। पुष्पोंकी माला स्वर्गमें होनेवाली मन्दारवृक्षकी मालाकी प्राप्तिके लिए होती है। नैवेद्य लक्ष्मीका स्वामित्व प्राप्त करने के लिए होता है। दीप कान्ति के लिए होता है । धूप पूजकके परम सौभाग्यके लिए होती है । फल इष्ट अर्थकी प्राप्तिके लिए होता है । और अर्घ पूजा विशेषके लिए होता है ॥३०॥
विशेषार्थ-सोमदेवने अपने उपासकाचारमें अष्टद्रव्यसे पूजाका विधान तो किया है। किन्तु प्रत्येक पूजाका अलग-अलग फल न बतलाकर पूजामात्रका सामान्य जो पूजककी शुभ भावना रूप है। जैसे-'हे भगवन् , जबतक इस चित्तमें आपका निवास है तबतक सदा जिन भगवान्के चरणोंमें मेरी भक्ति रहे, मेरी ऐश्वर्यरत मति सदा सबका आतिथ्य सत्कार करने में संलग्न हो, मेरी बुद्धि अध्यात्मतत्त्वमें लीन रहे। ज्ञानीजनोंसे मेरा स्नेह भाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकारमें रहे ।' आदि । अमितगतिके श्रावकाचारमें भी प्रत्येक पूजाके फलका कथन नहीं है। देवसेनके भावसंग्रह में प्रत्येक पूजाका फल बतलाया है। यथा-'जिनके चरण कमलों में दी गयी जलधारा समस्त रजको शान्त करती है, जो भव्य जीव जिनवरके चरणों में सुगन्धित चन्दनका लेप करता है वह स्वभावसे
सुगन्धित वैक्रियिक शरीर प्राप्त करता है। जो देवके चरणोंके आगे अक्षतके पुंज चढ़ाता है • वह नवनिधि सहित चक्रवर्तित्व प्राप्त करता है। जो सुगन्धित पुष्पोंसे जिनदेवके चरणकमलोंको पूजता है वह उत्तम देव होकर स्वर्गके वनोंमें आनन्द करता है। जो दही, दूध, घीसे बनाये गये उत्तम नैवेद्यसे जिनदेवके चरण कमलोंको पूजता है वह उत्तम भोगोंको प्राप्त करता है। जो कपूर और तेलसे प्रज्वलित और मन्द-मन्द वायुके झकोरोंसे नाचते हुए दीपोंसे जिनके चरण कमलोंको पूजता है वह चन्द्र-सूर्यके समान शरीर पाता है। जो शिलारस
१. वरस्त्रियः । -मु.। २. वित्त-।-मु.। ३. 'अम्भश्चन्दनतन्दुलोद्गमहविदीपः सधूपैः फलैरचित्वा त्रिजगद्गुरुं जिनपति स्नानोत्सवानन्तरम् ।'
सो. उपा. ५५९ श्लो. । ४. भावसंग्रह-४७०-४७७ गा. ।
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