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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय)
तथा
'ततोऽन्या पुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी ।
शृण्वताः पूर्वविद्यानामर्थं सब्रह्मचारिणः ॥' [ महापु. ३९।४९-५० ] शास्त्रान्तराणि- सौगतादिग्रन्थान् । उक्तं च
तदास्य दृढचर्याख्या क्रिया स्वसमयश्रुतम् ।
निष्ठाप्य शृण्वतो ग्रन्थान् बाह्यानन्यांश्च कांश्चन ॥' [ महापु. ३९।५१ ] अपि च
'सूत्रमौपासकं चास्य स्यादध्येयं गुरोर्मुखात् । विनयेन ततोऽन्यच्च शास्त्रमध्यात्मगोचरम् ॥ शब्दविद्यार्थशास्त्रादि चाध्येयं नास्य दुष्यति । स्वसंस्कारप्रबोधायाध्येयानि ख्यातयेऽपि च ॥ ज्योतिर्ज्ञानमथ च्छन्दोज्ञानं ज्ञानं च शाकुनम् ।
संख्याज्ञानमपीदं च तेनाध्येयं विशेषतः ।।' [ महापु. ३८।११८-१२० ] प्रतिमासमाधि-रात्रिप्रतिमायोगम। उक्तं च
'दृढव्रतस्य तस्यान्या क्रिया स्यादुपयोगिता।
पर्वोपवासपर्यन्ते प्रतिमायोगधारणम् ॥' [ महापु. ३९।५२ ] ॥२१॥ अथ शूद्रस्याप्याचारादिशुद्धिमतो ब्राह्मणादिवद्धर्म्यक्रियाकारित्वं यथोचितं समनुमन्यमानः प्राहउसके बाद उपवास और पूजापूर्वक स्थान लाभ नामकी तीसरी क्रिया होती है। इसकी विधि इस प्रकार है-जिनालयमें किसी पवित्र स्थानपर आठ पांखुरीका कमल बनावे अथवा गोलाकार समवसरण मण्डलकी रचना करे। जब उसकी पूजा सम्पूर्ण हो चुके तब आचार्य उस पुरुषको जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके सम्मुख बैठावे और बार-बार उसके मस्तकका स्पर्श करते हुए कहे-'यह तेरी श्रावककी दीक्षा है।' पंचमुष्ठिकी रीतिसे उसके मस्तकका स्पर्श करे तथा 'तू इस दीक्षासे पवित्र हुआ' इस प्रकार कहकर पूजाके बचे हुए शेषाक्षत उससे ग्रहण कराये। पश्चात 'यह मन्त्र तुझे समस्त पापोंसे पवित्र करे' इस प्रकार कहते हुए उसे पंच नमस्कार मन्त्रका उपदेश करे। यह तीसरी क्रिया है। उसके बाद वह पुरुष अपने घरसे मिथ्या देवताओंको निकालता है । यह चौथी गणग्रह क्रिया है । फिर पूजा और उपवासपूर्वक द्वादशांग श्रुतकी सुनना पाँचवीं पूजाराध्य क्रिया है। फिर साधर्मी पुरुषोंके साथ चौदह पूर्वोके अर्थको सुननेवाले उस भव्य के पुण्यको बढ़ानेवाली पुण्ययज्ञा नामक छठी क्रिया होती है। इस प्रकार अपने मतके शास्त्रोंको पूर्ण पढ़ लेने के बाद अन्य मतके शास्त्रोंको अथवा किसी अन्य विषयको पढ़ने या सुननेवाले उस भव्यके दृढ़चर्या नामकी सातवीं क्रिया होती है । इसके बाद उपयोगिता नामकी आठवीं क्रिया होती है। इसमें पर्वके दिन रात्रिके समयमें प्रतिमा योग धारण किया जाता है । महापुराणमें प्रतिपादित इन आठ क्रियाओंका ही कथन ग्रन्थकारने इस श्लोकमें क्रिया है । इन आठके बाद उपनीति क्रिया होती है। जिसमें जनेऊ धारण किया जाता है । उसका कथन आशाधरजीने नहीं किया है ॥२१॥
आगे कहते हैं कि आचार आदिकी शुद्धि पालनेवाला शूद्र भी ब्राह्मण आदिकी तरह यथायोग्य धर्म-कर्म कर सकता है
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