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धर्मामृत ( सागार) अधैः-पापैः दुखैर्वा बहुभिः । उक्तं च
'सम्मत्त सलिलपवहो णिच्चं हिययम्मि पवट्टए जस्स ।
कम्मं बालुयवरणं व तस्स बंधोच्चिय ण एइ ॥' -[धम्मरसायण १४० ] इत्युक्तं वेदितव्यम् ।' अर्थात् इच्छित स्त्री आदिको भोगनेसे होनेवाला सुख छोड़ने योग्य है कभी भी सेवनीय नहीं है ; क्योंकि उसका सेवन दुःखदायक कर्मबन्धका कारण है । तथा रत्नत्रयमें उपयोग लगानेसे आत्मामें प्रकट हुआ सुख उपादेय है, ऐसा उसे अन्तरंगसे रुचता है। वह स्वप्नमें भी अन्यथा नहीं सोचता। इसका कारण है उसकी जिनेन्द्र के शासनपर दृढ़तम श्रद्धा कि जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं हैं। इससे जानना चाहिए कि वह निश्चय सम्यग्दृष्टि है । चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान निश्चयसम्यग्दर्शनको लेकर ही समझना चाहिए । परमात्मप्रकाशकी टीकामें ब्रह्मदेवजीने लिखा है-'प्रभाकर भट्ट पूछेता है-अपनी शुद्ध आत्मा ही उपादेय है इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चयसम्यग्दर्शन होता है ऐसा आपने अनेक बार कहा है। यहाँ आप वीतराग चारित्रके साथ निश्चय सम्यक्त्व होता है ऐसा कहते हैं। यह तो पूर्वापरविरुद्ध है; क्योंकि अपनी शुद्ध आत्मा ही उपादेय है' इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर परमदेव, भरत, सगर, राम, पाण्डव आदिके था। किन्तु उनके वीतराग चारित्र नहीं था। यह परस्पर विरोध है। यदि था तो वे असंयत कैसे हुए। यह पूर्वपक्ष है । इसका उत्तर यह है-उनके 'शुद्धात्मा उपादेय है' इस प्रकारकी भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व वर्तमान है। किन्तु चारित्र मोहके उदयसे स्थिरता नहीं है। व्रतप्रतिज्ञाका भंग होता है. इस कारण असंयत कहे जाते हैं, शुद्धात्म भावनासे च्युत होनेपर भरत आदि निर्दोष परमात्माका, अहंत सिद्धोंका गुणस्तवन या वस्तुरूप स्तवन आदि करते है, उनके चरित पुराण आदि सुनते हैं। उनके आराधक आचार्य उपाध्याय साधुओंको दान पूजा आदि करते हैं जिससे खोटे ध्यानसे बचें और संसारकी स्थितिका छेद हो। इसलिए शुभराग होनेसे सरागसम्यग्दृष्टि कहलाते हैं। उनके सम्यक्त्वको निश्चय सम्यक्त्व इसलिए कहा जाता है कि वह वीतराग चारित्रके अविनाभावी निश्चय सम्यक्त्वका परम्परासे का
इस तरह ब्रह्मदेवजीने रागके सहभावी सम्यक्त्वको व्यवहार सम्यक्त्व और रागके अभाव सहित सम्यक्त्वको निश्चय सम्यक्त्व कहा है क्योंकि राग नाम व्यवहारका है । १. 'अत्राह प्रभाकरभट्टः-निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहधा व्याख्यातं
पूर्व भवद्धिः । इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः । कस्मादिति चेत् निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थकरपरमदेव-भरतसगर-राम-पाण्डवादीनां विद्यते । न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः । अस्ति चेत्तहि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाह-तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभको भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते । शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तो भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामहत्सिद्धानां गुणस्तववस्तुस्तवरूपस्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति, तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्यायसाधूनां विषयकषायानवञ्चनार्थ संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परम्परया साधकत्वात् ।'-पर. प्रका. टी. दोहा २॥१७॥
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