________________
३
दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय) च निजं प्रोक्तम्' इत्यभिधानात् । त्विति-तुरवधारणे भिन्न क्रम इत्येवेत्यर्थः (?) आत्मनिन्दादिमान्-धिग् मामेवं प्रदीपहस्तमप्यन्धकूपे पतन्तमित्यात्मानं निन्दयन् । भगवन् ! कथमस्मै दुर्गतिदुःखाय घटिष्यत एवमुत्पथचारी जनोऽयमिति गुरुसाक्षिकं गहमाणश्च । आक्षं-इन्द्रियेभ्य आगतम् । रुजति–पीडयति । परं-स्थावरं जङ्गमं वा भूतग्रामम् । एतेनासंयतसम्यग्दृष्टिः स भवतीत्युक्तं स्यात् । यथाहु:
'णो इंदिएस विरदो णो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥' [ गो. जी. २९ गा.] उत्तप्यते-उत्कृष्टं क्लिश्यते । सोऽपि, कि पुनस्त्यक्तविषयसुखः सर्वात्मनैकदेशेन वा हिंसादिभ्यो विरतश्चेत्यपिशब्दार्थः ।
विशेषार्थ-धर्मका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे होता है । इसीसे सभी आचार्योंने सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है । आचार्य कुन्दकुन्दने अपने दसणपाहुडमें सम्यग्दर्शनकी प्रशंसा करते हुए सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है और सम्यग्दर्शनसे भ्रष्टको ही भ्रष्ट कहा है और उसको मोक्षका अपात्र कहा है। इसी तरह आचार्य समन्तभद्रने भी आचार्य कुन्दकुन्दका ही अनुसरण करते हुए कहा है कि तीनों कालों और तीनों लोकोंमें सम्यक्त्वके समान कल्याणकारी और मिथ्यात्वके समान अकल्याणकारी कोई भी नहीं है । और यह भी कहा है कि यतः ज्ञान और चारित्रसे सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ या उत्कृष्ट है इसलिए उसे मोक्षमार्गमें कर्णधार कहा है । आचार्य अमृतचन्द्रजीने कहा है कि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें से सबसे पहले पूर्ण प्रयत्नके साथ सम्यग्दर्शनको स्वीकार करना चाहिए; क्योंकि उसके होनेपर ही ज्ञान और चारित्र सम्यक होते हैं। इसीसे सूत्रजीमें भी 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस प्रथम सूत्रमें सम्यग्दर्शनको प्रथम स्थान दिया है। सारांश यह है कि सम्यग्दर्शनके विना न शास्त्रज्ञानका कोई मूल्य है न आचारका कोई मूल्य है। इसका कारण क्या है ? जिनशासनका सर्वप्रथम उद्घोष है कि इन्द्रियों के द्वारा हमें जो सुख मिलता है वह सुख सुख नहीं है दुःख है । सुख तो आत्माका धर्म है। जब तक इसपर श्रद्धा न जमे तब तक समस्त त्याग और ज्ञानका कोई मूल्य नहीं है । और यह श्रद्धा सात तत्त्वोंपर श्रद्धान होनेसे ही होती है इसीसे तत्त्वार्थ श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इसीमें देव शास्त्र गुरु भी आ जाते हैं । यह श्रद्धा ऊपरी नहीं होती। इसीसे सम्यग्दर्शनको आत्मपरिणाम कहा है। समस्त परभावोंसे भिन्न अपने चैतन्य स्वरूपकी श्रद्धा ही वस्तुतः सम्यग्दर्शन है। चैतन्य स्वरूपकी सामान्य श्रद्धा तो नारकी तिथंच आदिको भी होती है । जिन्हें विशेष ज्ञान नहीं होता वे 'भगवान् जिनेन्द्र अन्यथा नहीं कहते' मात्र इसी दृढ़तम श्रद्धा वश यह श्रद्धा करते हैं कि वैषयिक सुख हेय है और आत्मिक सुख उपादेय है। इस श्रद्धाको ग्रन्थकारने निश्चयसम्यग्दर्शनरूप कहा है। वह अपनी टीकामें लिखते हैं-'एतेन निश्चयसम्यग्दर्शनभाग्भवन् १. 'एव तु अत्रावधारणार्थो भिन्नक्रमः ।'–भ. कु. च.। २. 'दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेहि सिस्साणं ।'-दसणपा. २ गा. ३. 'न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ॥--रत्न. श्रा., ३४ श्लो. । ४. दर्शनं ज्ञानचारित्रात साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते ।-रत्न. श्रा., ३१ श्लो.। ५. 'तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥'-पुरुषार्थ. २१ ।
सा.-४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org