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धर्मामृत ( सागार )
मक्षिकादिवान्तत्वाच्चास्याशुचित्वम् । तदप्याह— 'एकैककुसुमक्रोडाद्रसमापीय मक्षिकाः । यद्वमन्ति मधूच्छिष्टं तदश्नन्ति न धार्मिकाः ॥' [ अपि बिन्दुश: बिन्दुमात्रमपि नाधिकम् । तदाह
'ग्रामसप्तकविदाहरेफसा तुल्यता न मधुभक्षिरेफसः । तुल्यमञ्जलिजलेन कुत्रचिन्निम्नगापतिजलं न जायते ॥' [ अमि श्रा. ५।२८ ]
स्मृतिस्त्वित्थमाह
'सप्तग्रामे त यत्पापमग्निना भस्मना कृते । तस्य चेतद् भवेत्पापं मधुबिन्दुनिषेवणात् ॥' [
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मांसवन्मध्वपि चिखादिषोः प्राणिवधबुद्धचा कृपातिरस्कारात् पापीयस्त्वं स्यात् । तदुक्तम् - 'यश्चिखादिषति सारघं कुधीर्मंक्षिकागणविनाशनस्पृहः ।
पापकर्दम निषेधनिम्नगा तस्य हन्त करुणा कुतस्तनी ॥ [ अमित श्री. ५। ३०] ॥ ११ ॥ अथ क्षोद्रवन्नवनीतस्यापि दोषभूयिष्ठतया त्याज्यतामुपदिशति-
विशेषार्थ - यद्यपि मद्य -मांसकी तरह मधु दैनिक भोजनका साधारण अंग नहीं है तथापि वैदिक संस्कृति में मधु अतिथिसत्कारका विशिष्ट अंग रहा है । मनुस्मृति में कहा हूं कि मघा नक्षत्र और त्रयोदशी तिथि होनेपर मधुसे मिली हुई कोई भी वस्तु दे तो वह पितरोंकी तृप्ति लिए होती है । पितर यह अभिलाषा करते हैं कि हमारे कुलमें कोई ऐसा उत्पन्न हो
त्रयोदशी तिथिको मधु तथा घीसे मिली हुई खीरसे हमारा श्राद्ध करे ( ३।२७३-२७४) । किन्तु मधु तो मधुमक्खियोंके द्वारा संचित होता है । उनकी हिंसा करके ही वह प्राप्त किया जाता है । अमृतचन्द्रजीने कहा है कि यदि कोई छलसे अथवा मधुमक्खियोंके छत्तेसे स्वयं
पके हुए मधुको प्राप्त कर भी ले तो भी उसमें रहनेवाले जन्तुओंके घातसे हिंसा अवश्य होती है । सोमदेवजीने लिखा है - मधुमक्खियोंके अण्डोंके निचोनेसे पैदा हुए मधुका, जो रज और वीर्यके मिश्रण के समान है, कैसे सज्जन पुरुष सेवन करते हैं । मधुका छत्ता व्याकुल शिशुओं के गर्भ - जैसा है। और अण्डोंसे उत्पन्न होनेवाले जन्तुओंके छोटे-छोटे अण्डों के टुकड़ोंजैसा है । भील, व्याध वगैरह हिंसक मनुष्य उसे खाते हैं । उसमें माधुर्य कहाँ ? अमितगति आचार्य ने कहा है, जो औषधि के रूप में भी मधुका सेवन करता है वह भी तीव्र दुःखको प्राप्त होता है । यदि कोई जीवनकी इच्छासे विष खावे तो क्या विष उसका जीवन नष्ट नहीं कर देता । अतः सुखके इच्छुक पण्डितजन घोर दुःखदायी मधुका सेवन नहीं करते || ११||
आगे मधुकी तरह बहुत दोष होने से मक्खन को भी छोड़ने योग्य कहते हैं
१. ' मधु शकलमपि प्रायो मधुकर हिंसात्मकं भवति लोके ।
भजति मधुमूढधी को यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥ - पुरुषार्थ, ६९ श्लो. । २. 'उद्भ्रान्तार्भकगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु मधुच्छत्रे व्याधलुब्धकजीवितम् ' ॥
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३. ' योऽत्ति नाम मधु भेषजेच्छया सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम् । किन्न नाशयति जीवितेच्छया भक्षितं झटिति जीवितं विषम् ॥-अमि श्रा ५।२७-३३ ।
--सो. उपा. २९४-९५ ।
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