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दशम अध्याय ( प्रथम अध्याय )
स्वचक्र-परचक्र - दुर्भिक्ष-मारीति-जनविरोधाद्युपष्ट (द्र - ) वाभावात् पूर्वोपार्जितानां धर्मादीनामविनाशादपूर्वाणां च लाभात् त्रिवर्गाहं स्थानं पुरग्रामादि । तथा शल्यादिदोषरहितं बहलदूर्वाप्रवालकुशस्तम्ब-प्रशस्तवणगन्ध र समृत्तिका - सुस्वादुजलोद्गमनिपानादिमन्निमित्तविशेषख्यापितोदयं सरि (-परि-) पार्श्वतस्त्र्यैवगिकात्मसमान शिष्टगृहस्थ गृहैरसंबाधतयाऽलंकृतं च त्रिवर्गस्थानं वास्तु । तथा प्रतिनियतद्वारः सर्वर्तुरम्यः प्रविभक्तदेवार्चनाद्युचितप्रदेश: सुरक्षितश्चा अ य [ श्चालय ] स्त्रिवर्गार्हः । ह्रीमयः --- लज्जया वैयात्याभावेन निवृत्त इव । लज्जावान् हि प्राणप्रहाणेऽपि न प्रतिज्ञातमपजहाति, नापि विभव वयोऽवस्था- देश - कालजात्याद्यनुचितवेषो भवति, नापि देशकुलजातिगर्हितं कर्म करोति, नापि प्रसिद्धदेशाचारमतिक्रामति । यदाह'लज्जां गुणौघजननीं जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि सन्त्यजन्ति, सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥' [ युक्ताहारविहारः - युक्तो
1 शास्त्रविहितावाहारविहारी भोजनविचरणे यस्य ।
विधिर्यथा
'प्रसृष्टे विण्मूत्रे हृदि सुविमले दोषे स्वपथगे, विशुद्धे चोद्गारे क्षुदुपगमने वातेऽनुसरति । तथानावुद्रिके विशद करणे देहे च सुलघी,
प्रयुञ्जीताहारं विधिनियमितं कालः स हि मतः ॥ [ अष्टाङ्गहृ. ८५५ ] 'विशुद्धे चोद्गारे' इत्यनेनाविशुद्धोद्गारवर्जनादजीर्णे न भुञ्जीत 'अजीर्णप्रभवा रोगा' इति । तल्लक्षणं यथा—
'मलवातयोर्विगन्धो विभेद्यो गात्रगौरवमरुच्यम् । अविशुद्धश्चोद्गारः षड् जीर्णव्यक्तलिङ्गानि ॥ [
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आग वगैरह की दुर्घटना होनेपर आने-जाने में कठिनाई होती है। तथा पड़ोसी शीलसम्पन्नहोने चाहिए । यदि पड़ोसी कुशील हों तो उनकी बातोंके सुनने और उनकी चेष्टाओंके देखनेसे अपने भी गुणों को हानि होती है । अतः अच्छे पड़ोस में मकान होना आवश्यक है ।
६. तथा गृहस्थको निर्लज्ज नहीं होना चाहिए, लज्जाशील होना चाहिए । लज्जा गुणोंकी जननी है । लज्जाशील व्यक्ति प्राण भले ही छोड़ दे किन्तु अपनी मर्यादाको नहीं छोड़ता । ७. आहार-विहार युक्त होना चाहिए । यदि अजीर्ण हो, पहले किया भोजन पचा न हो तो नया भोजन नहीं करना चाहिए। अजीर्ण में भोजन करनेपर अजीर्ण में वृद्धि होगी और अजीर्ण सब रोगोंकी जड़ है । अत: भूख लगनेपर मित भोजन करना चाहिए। कहा है'जो मित भोजन करता है वह बहुत भोजन करता है। बिना भूखके अमृत भी खानेपर विष होता है' ।
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आहारप्रयोग- १२
आहार करनेके समयका प्रविधान करते हुए कहा है- 'जब मल मूत्रका त्याग कर दिया हो, हृदय निर्मल हो, वात पित्त कफ अपने योग्य हो, भूख लगी हो, वायुका निःसरण ठीक हो, अग्नि प्रज्वलित हो, शरीर हलका हो तब भोजन करना चाहिए। वही भोजनका काल माना गया है।' अजीर्ण में भोजन नहीं करना चाहिए । अजीर्ण रोगोंकी जड़ है । मलवायु में दुर्गन्ध, मलका कड़ा होना, शरीरमें भारीपन, अरुचि और डकार में खटास ये सब अजीर्ण के लक्षण हैं।' अत: भूख लगनेपर हित, मित और सात्म्य भोजन करना चाहिए ।
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इत्युक्तं स्यात् । यत्पठन्ति - १८
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