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धर्मामृत ( सागार) सम्यक्त्वं प्राक् प्रबन्धेन व्यावणितम् । तस्य च मोक्षाङ्गेषु प्रधानत्वात् मुग्धधियां च दुर्लक्षणत्वात् इदानीं गृहिणां तत्प्रतिपत्तये प्राचां सूक्तिप्रपञ्चः प्रस्तीर्यते । तथाहि
'जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ॥' [ पुरुषार्थसि. २२ ] जीवाजीवादितत्त्वोपदेशस्तु संक्षेपेण यथा
'उपादेयतया जीवोऽजीवो हेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपादानहेतुत्वेनास्रवः स्मृतः॥ हेयोपादानरूपेण बन्धः संपरिकीर्तितः । संवरो निर्जरा हेयहानिहेतुतयोदिते ॥ [ 'श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।। आप्तेनोत्सिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।। आप्तोपज्ञमनुल्लङध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ [ रत्न. श्रा. ४, ५, ९, १० श्लो. ] तद्विशुद्धिविधिस्त्वयम्
विशेषार्थ-कुन्दकुन्दाचार्यने 'चरित्तपाहुडमें और उमास्वामीने तत्त्वार्थ सूत्रके सातवें अध्यायमें इतना ही पूर्ण सागार धर्म कहा है। इसीका विस्तार श्रावकाचारोंमें मिलता है। अन्तर गणव्रतों और शिक्षाव्रतोंके भेदोंमें है संख्यामें अन्तर नहीं है। व्रतोंकी संख्या तो बारह ही है । जैसे कुन्दकुन्दने दिग्वत और देशवतको 'दिसिविदिसिमाण' नामका एक ही गुणव्रत माना है। तत्त्वार्थसूत्रमें इसे दो व्रत माने हैं। कुन्दकुन्दने इस एक संख्याकी कमीको सल्लेखनाको शिक्षाबतोंमें सम्मिलित करके पूर्ण किया है। इसका विशेष विवेचन आगे इन व्रतोंके प्रसंगमें किया जायगा । जहाँ मरणके साथ ही जीवनका अन्त हो उसे मरणान्त या तद्भवमरण कहते हैं । यों तो प्रति समय आयु कर्मके निषेकोंकी उदयपूर्वक निर्जरा होती है। उसे आवीचि मरण कहते हैं। यह मरण तो सभी प्राणियों में प्रतिक्षण हुआ करता है। उस मरणसे प्रयोजन यहाँ नहीं है । सम्यक् अर्थात् लाभ आदिकी अपेक्षा न करके, लेखना अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर तपके द्वारा शरीर और कषायोंको कृश करना सल्लेखना है। इसकी विधि सत्तरहवें अध्यायमें कहेंगे।
यद्यपि अनगार धर्मामृतके प्रारम्भमें सम्यग्दर्शनका वर्णन किया है तथापि मोक्षके कारणोंमें उसके प्रधान होनेसे तथा मूढ़ बुद्धियोंके द्वारा उसका लक्षण ठीक न जाननेसे, गृहस्थोंको उसका बोध करानेके लिए पूर्वाचार्योकी सूक्तियोंको विस्तारसे कहते हैं
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१. पंचेवणुव्वयाई गुणव्वयाइं हवंति.तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं
-चरि. पा., २२ गा.।
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