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प्रवचन- १
११
आत्माओं को, तत्त्वरसिक मनुष्यों को धर्मतत्त्व का बोध हो, मोक्षमार्ग का ज्ञान हो, मानवजीवन के महान कर्तव्यों का बोध हो, उस बोध से चित्त की प्रसन्न प्राप्त हो, आत्मानन्द का अनुभव हो, त्याग - वैराग्य की भावनाएँ जाग्रत हों... इस पवित्र परोपकार की भावना से प्रेरित होकर ग्रन्थकार आचार्यदेव ने ग्रन्थ की रचना की है।
करुणा का तत्त्व ही ऐसा है जो परोपकार के लिए मनुष्य को उत्तेजित कर देता है! दूसरे जीवों के दु:ख, करुणा सहन नहीं कर सकती । परदुःख का नाश करने का पुरुषार्थ वह करवाएगी ही।
अन्तरात्मा को जगाइए !
सर्वज्ञ-वीतराग जिनेश्वरों का यह निर्णय है कि संसार में जीवात्माएँ ज्ञान के अभाव में भटक रही हैं, ज्ञान के अभाव में ही दुःख - त्रास और अशान्ति है । ग्रन्थकार ने इसी निर्णय को अपना निर्णय बनाकर, जीवों को ज्ञान-प्रकाश देने का पवित्र कार्य किया है, सैंकड़ों ग्रन्थों की रचना की है। यह उनका भव्य उपकार है, मानते हो उपकार? मानते हो ऐसे ज्ञानी महापुरुषों को उपकारी? आप बताओगे कि आप किस-किसको उपकारी मानते हो? धन देनेवाला उपकारी या धर्म देनेवाला उपकारी ? समृद्धि देनेवाला उपकारी या सद्बुद्धि देनेवाला उपकारी? धन- मान और समृद्धि देनेवालों को भले आप उपकारी मानो, परन्तु धर्म-ज्ञान और सद्बुद्धि देनेवालों को भी उपकारी मानो, मानते हो क्या? ज्ञान और ज्ञानी पुरुषों के प्रति श्रद्धा, प्रेम और भक्ति है? अपनी अन्तरात्मा को टटोलो ।
ज्ञान के लिए जान भी कुरबान :
चीन का एक प्रवासी ‘ह्यु-एन-त्संग' भारत के प्रवास के लिए आया था । मध्ययुग की यह बात है। नालंदा विद्यापीठ में उसने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और जब वह वापस अपने देश जाने लगा तब उसने बौद्ध धर्म के कई हस्तलिखित ग्रन्थ साथ ले लिए। बंगाल के उपसागर से वह चीन जा रहा था, बौद्ध धर्म के दो पंडित - ज्ञानगुप्त और त्यागराज उनको विदा देने के लिए उनके साथ जहाज में जा रहे थे। जहाज आगे बढ़ रहा था, अचानक आकाश में बादल घिर आए। आँधी और तूफान ऐसे घिरे कि सबके प्राणों को खतरा हो गया । जहाज के कप्तान ने यात्रियों को आदेश दे दिया कि 'जिसके भी पास भारी सामान हो, समुद्र में फेंक दें।' ह्यु-एन-त्संग के पास उन हस्तलिखित
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