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४ जाता है । इन नारकियों के जन्म स्थान नरक चौरासी लाख बिलों के ऊपर होते हैं । जन्म स्थानों के
आकार कुम्भी, मुद्गर, मृदंग, भस्मा, धोंकनो, टोकनी आदि, के समान अशुभ और भयानक है, इन जन्म स्थानों का भीतरी भाग करोंत को धार के समान तीक्ष्ण बन्नमयो भयंकर है, सब जन्म स्थानों के मुख नीचे की ओर है । जिससे नारको उत्पन्न होने के साथ हो नोचे बिलों में जाकर गिरत है । उन नरक बिलों में कुत्ता, बिल्ली, ऊंट आदि के सड़े गले शरीरों की दुर्गध की अपेक्षा अनन्त गुणी अधिक दुर्गध है और वहां की भूमि अत्यन्त जहरोली है कि उसे छूने मात्र से हजारों विच्छुओं के एक साथ काटने से भी अधिक वेदना होतो है । नारको जीव उत्पन्न होकर नीचे छत्तीस आयुधों के बीच में गिरता है, और जहरीलो भूमि तथा तीक्ष्ण आयुषों को वेदना को नहीं मह सकने के कारण एकदम ऊपर को उछलता है । प्रथम नरक में सात योजन और छह हजार पांच सौ धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है । आगे के नरकों में उछलने का प्रमाण उत्तरोत्तर दूना दूना है । इस प्रकार कई बार दड़ो गैंद, फुटबाल के समान नीचे से ऊपर उछलने पर जब नया नारकी अधम दशा होकर नीचे गिर जाता है, पड़ जाता है, तब पुराने नारको उन नवीन नारकियों को देखकर धमकाते हुए उस पर इस प्रकार टूट पड़ते हैं जिस प्रकार क्रूर सिह मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है । ये नारको चक्र
बाण, मुद्गर, करोत, भाला, मूसल, तलबार, छूरी, कटारी आदि से मारने काटने लगते हैं । कितने & ही नारको उसे पकड़ कर और पूर्व भाव के बैरों को स्मरण कर उसे कोल्हू में पेल देते हैं। कोई उसे पष्ठ
धधकती हुई भाट्रियों में झोंक देते हैं, कोई उबलते हुए तेल के कढ़ावों में डाल देते हैं । इस प्रकार ११ 8 जब वह नारकी इन असंख्य दुःखों से मरणासन्न हो जाते हैं तो अपने प्राण बचाकर शान्ति पाने की 3 & इच्छा से वहां बहने वाली वैतरणी नदी में कूद पड़ता है, परन्तु पाप के उदय से वहां भी शान्ति नहीं