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0 के असंख्यात भाग जो बहुत हो र होला है। एक के शो बस सचित्त मिट्टी में अनगिनती ४
पृथ्वीकायिक जीव हैं। जैसे हमें कोई जन कूटे छोले कुल्हाड़ी से छेदे तो स्पर्श का कष्ट होता है, वैसे ही पृथ्वी के जीवों को हल चलाने आदि से घोर कष्ट होता है। वे जीव पराधीनपने में सब सहते हैं। कुछ बचने का उपाय नहीं कर सकते हैं और भागने को भी असमर्थ है । जलकायिकसचित्त जल को गर्म करने, मसलने, रोंदने, फेंकने, पीट देने आदि से महान् कष्ट उसी तरह होता है, जैसे पृथ्वी के जीवों को होता है। इनका शरीर बहुत छोटा होता है । एक पानी को बून्द में अनगिनत जीव होते हैं । पवनकायिक जीव, दोवार भीतादिक को टक्कर खाने से, गर्मी के झोकों से,
जल को तो दूष्ट से, पंखों से, हमारे दौड़ने, उछलने से, टकराकर बड़े फष्ट से मरते हैं । इनका & शरीर भी बहुत छोटा होता है । एक हवा के झोके में अनगिनत वायुकायिक प्राणी होते हैं । & अग्नि जल रही है । जब उसको पानी से बुझाते हैं या मिट्टी डालकर बुझाते हैं या लोहे से निकलते
हुए स्फुलिगों को घन को चोटों से पीटते हैं तब उन अग्निकायिक प्राणियों को स्पर्श का बहुत ही दुःख होता है । इनका शरीर भी बहुत छोटा होता है । एक उठती हुई अग्नि को लौ में अनगिनती अग्निकायिक जीव होते हैं । वनस्पतिकायिक -दो प्रकार की होती है एक साधारण, दूसरी प्रत्येक ।
जिस वनस्पति का शरीर एक हो या उसके स्वामी बहुत जीव हों । जो साथ-साथ जन्में और साथ साथ 8 मरे उनको साधारण वनस्पति कहते हैं । जिनका स्वामी एक हो जीव हो, उसको प्रत्येक वनस्पति
कहते हैं । प्रत्येक के आश्रय जब साधारणकाय रहते हैं तब उस प्रत्येक फो सप्रतिष्टित प्रत्येक कहते हैं। जब साधारण बनस्पतिकाय उनके प्राश्रित नहीं होते हैं, तब उनको अप्रतिष्ठित वनस्पति कहते हैं। जिन पत्तों में या फलादि में जो प्रत्येक रेखायें बंधन मावि निकलते है ये जब तक न निकलें. जब