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तप से निजरा होता है यह सकल निर्जरा है। जैसे सुवर्ण अग्नि में तपाया धमाया गया कोटकावि
मल रहित होके शुद्ध हो जाता है उसी तरह यह जीव भो तप रूपी अग्नि से सपाया कमो से रहित छह& होकर शुद्ध स्वर्ण सदृश होता है, बहुत काल का समय किया कर्म कट जाता है।
भावार्य-सञ्चित कर्मों के झड़ने को निर्जरा कहते हैं । यह निर्जरा दो प्रकार को होती है, सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । जिस कर्म की जितनी स्थिति पूर्व में बंधी थी उसके पूरा ४ होने पर उस कर्म के फल देकर झड़ने को सविपाक निर्जरा कहते हैं यह सब संसारी जीवों के होती है इससे आत्मा को कोई लाभ नहीं है क्योंकि इस निर्जरा के द्वारा जीव जिन कर्मों को निर्जरा करता है & उससे कई गुणित. अधिक मदीन कर्मों का अन्य कर लेता है, जैसे मंथन दिलोने में रस्सी एक और 8 खिचती है और दूसरी ओर लिपट जाती है, इसलिए इस निर्जरा को व्यर्थ बतलाया गया है । 8 तपश्चरण के द्वारा स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही जो कर्मों की निर्जरा की जाती है उसे प्रविपाक निर्जरा कहते हैं, ये निर्जरा बती तपस्वी साधुओं के होती है और यही आत्मा के लिये लाभदायक है, यही मोक्ष प्राप्त करने वाली हैं, निर्गरा का प्रधान कारण तप है, वह तप बारह प्रकार का बतलाया गया है, वैराग्य भावना युक्त, अहंकार घमंड रहित, ज्ञानी पुरुषों के ही तप से निर्गरा होती है। प्रात्मा में ज्यों ज्यों उपशम भाव और तप को वृद्धि होती जाती है त्यों त्यों निर्जरा को भी
वृद्धि होती जाती है । जो दुर्जनों के दुर्वचनों को, मारन, ताड़न और अनादर को अपना पूर्वोपार्जित 0 कर्म का उदय जानकर शान्त चित्त से सहन करते हैं उनके उन कर्मों की निर्जरा विपुल परिणाम में तू होती है। जो तीव्र परिषह और उग्र उपसर्गों को कर्म रूप शत्रु का ऋण समझ कर शान्ति से सहन
करने हैं उनके भारी निर्जरा होती है। जो पुरुष इस शरीर को ममता का उत्पन्न करने वाला विनश्वर