Book Title: Chahdhala 2
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 158
________________ कर्तव्य माना गया है। अब अंतरंग छहों तपों का वर्णन करते हैं-प्रमाव से लगे हुए दोषों को शुद्धि करना, प्राय- ढाला शिचत तप है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र में तथा इनके धारक पूज्य पुरुषों में आदर भाव रखना और आलस्य को त्याग कर इनको बिनय में प्रवृतना विनय तप है। आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि है & को सेवा टहल आदि करना सो या व्रत तप है । शास्त्रों का अभ्यास करना, नवीन ज्ञानोपाजंन की है & भावना रखना और आलस्य को त्याग करना सो स्वाध्याय तप है। मन की चंचलता व्याकुलता को 8 दूर कर उसे स्थिर करना सो ध्यान है। ये छह अंतरगं तप कहलाते हैं। क्योंकि प्रथम तो इनके लिए ल & किसी बाहरी द्रव्य को आवश्यकता ही नहीं होती है। दूसरे अन्तरंग जो मन है उसके बश करने के & लिए हो उक्त सर्व तपों का आधरण किया जाता है। इन अन्तरंग तपों की सिद्धि के द्वारा ही & मनुष्य मुक्ति लाभ करता है, और प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी के द्वारा कर्मों को निर्जरा करता है है । संचित कर्मों के नाश के लिए तप के सिवाय अन्य कोई समर्थ नहीं है । अतएव मुमुक्षु जनों को शाक्ति के अनुसार अवश्य तपश्चरण करना चाहिए। भिक्कं चर व सरण्ये, थोवं जी मे ही मा जम्प । दुःखं सह जिद निद्रा, मैत्रि भावे ही सुष्ट वैराग्ग ॥ अब वश धर्म का वर्णन किया जाता है । वुष्ट जनों के द्वारा आक्रोश, हंसी, गाली, बदमाशो 8 आदि किये जाने पर और मारन ताड़न छेदन बंदन किये जाने पर भी मन में विचार भाव का न ल होने देना सो उत्तम क्षमा धर्म है । जाति, कुल, धन, बल, वीर्य, ज्ञान आदि का अहंकार घमंड नहीं 8

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